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चारित्र अधिकार
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दो विशेषणों का उल्लेख किया गया है - एक तो यह कि वह बहुत जीवों के घात से उत्पन्न होता है, दूसरा यह कि वह बहुत जीवों की उत्पत्ति का स्थान है - बहुत जीव उसमें उत्पन्न होते रहते हैं। अपने इन दोषों के कारण मधु का सेवन हिंसारूप असंयम का जनक है। इसलिए जो साधु संयम के भंग होने का भय रखते हैं, वे मन-वचन-काय से तथा कृत-कारित-अनुमोदना से मधु का त्याग करते हैं। अन्य भी अनेक अभक्ष्य पदार्थ -
कन्दो मूलं फलं पत्रं नवनीतमगृघ्नुभिः।
अनेषणीयमग्राह्यमन्नमन्यदपि त्रिधा ।।४१९।। अन्वय :- अगृघ्नुभिः (साधुभिः) कन्दः मूलं फलं पत्रं नवनीतं अन्यत् अपि अग्राह्यं अन्नं त्रिधा (त्याज्यं भवति)।
सरलार्थ:- भोजन में लालसा रहित साधु कन्द, मूल, फल, फूल, पत्र, मक्खन आदि अभक्ष्य पदार्थ एवं उद्गमादि दोषों से दूषित होने से अग्राह्य ऐसे अन्न/भोजनादि का भी मन-वचन-काय से
और कृत-कारित-अनुमोदना से त्याग करते हैं। ___भावार्थ :- वास्तविक बात यह है कि मधु, मांस, कन्दमूल आदि पदार्थों का तो सामान्य श्रावक ही त्याग कर देते हैं, उनके त्याग की बात साधु के लिये कहना अटपटा सा लगता है, ऐसी शंका यहाँ कोई कर सकता है। इसका उत्तर प्रवचनसार गाथा २२९ की टीका करते समय दोनों आचार्यों ने दिया है, वह इसप्रकार है - मधु-मांस, कंदमूलादि त्याग की बात तो मात्र उपलक्षणरूप है। इससे चरणानुयोग के शास्त्र में मुनिराज के लिये हिंसा का आयतन जानकर जिन पदार्थों का त्याग बताया है, उन सब पदार्थों का त्याग अपेक्षित है, ऐसा समझना चाहिए। मुनिराज के हाथ में प्राप्त अन्न दूसरे को देय नहीं -
पिण्डः पाणि-गतोऽन्यस्मै दातुं योग्यो न युज्यते।
दीयते चेन्न भोक्तव्यं भुङ्क्ते चेद्दोषभाग् यतिः ।।४२०।। अन्वय :- पाणि-गतः पिण्डः अन्यस्मै दातुं योग्यः न युज्यते, दीयते चेत् (यतिना पुनः) न भोक्तव्यः, भुङ्क्ते चेत् यति: दोषभाग् (भवति)। __ सरलार्थ :- दातारों से मुनिराज के हाथ में प्राप्त हुआ प्रासुक आहार दूसरों को देनेयोग्य नहीं है। यदि मुनिराज हस्तगत आहार दूसरे को देते हैं तो उन्हें उस समय पुन: आहार नहीं लेना चाहिए। यदि वे मुनिराज हस्तगत अन्न अन्य को देकर भी स्वयं उसी समय आहार ग्रहण करते हैं तो वे दोष के भागी होते हैं। ___ भावार्थ :- हस्तगत आहार मुनिराज दूसरों को देते हैं तो वे उस अन्न के स्वामी बनने से परिग्रहधारी हुए, इसकारण उनके अपरिग्रह महाव्रत नहीं रहा। दूसरी बात अन्न-दान देने का भाव गृहस्थ के जीवन में होता है, अत: वे इन परिणामों से गृहस्थतुल्य बन जाते हैं। तीसरी बात आचार्य जयसेन
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