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योगसार-प्राभृत
शुद्धोपयोग अथवा शुद्धपरिणतिजन्य आनन्द का रसास्वादन करते रहते हैं) जिनका आहार इच्छा से रहित अर्थात् नियम से अनुदिष्ट/सहज प्राप्त रहता है, जो अनुकूल-प्रतिकूल सब संयोग-वियोग में सर्वत्र सदा राग-द्वेष परिणामों से रहित अर्थात् वीतराग परिणाम से परिणमित रहते हैं, उन मुनिराजों को अनाहारी संयत कहते हैं।
भावार्थ :- सप्तम एवं उससे ऊपर आठवें अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में विराजमान मुनिराजों को अप्रमत्त विरत मुनिराज कहते हैं। उनके जीवन में कषायादि पन्द्रह प्रमादों के कारण प्रमादभाव नहीं होता। परिणामों में वीतरागता बढती रहती है, क्योंकि शुद्धोपयोग में संलग्न हैं। सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो सातवें से दसवें गुणस्थान पर्यन्त यथापदवी कषाय-नोकषायों के उदय के निमित्त से क्रोधादि सूक्ष्म विभाव भाव होते हैं, तथापि प्रमाद की उत्पत्ति नहीं होती। आगे उपशांत मोह से अयोग केवली पर्यन्त गुणस्थानों में सर्वथा वीतरागभाव ही रहता है। यहाँ मात्र शुद्धोपयोगी मुनिराज ही अनाहारी हैं, ऐसा नहीं समझना, क्योंकि श्लोक में जिनका आहार एषणा/इच्छा से रहित है, उन्हें अनाहारी कहा है।
प्रश्न :- आहार ग्रहण करनेवाले अनाहारी कैसे ?
उत्तर :- आहार-ग्रहण करने की क्रिया भले चलती रहती है, तथापि उन्होंने श्रद्धा-ज्ञान में आत्मा को अनाहारी मान लिया है एवं आहार के वे मात्र ज्ञाता-दृष्टा हैं, अत: उन्हें आहार ग्रहण करते हुए भी अनाहारी माना गया है।
प्रवचनसार गाथा २२७ एवं इसकी दोनों टीकाओं को जरूर देखें । अनाहारी के साथ-साथ विहार करते हुए उन्हें अविहारी भी सिद्ध किया है। देहमात्र परिग्रहधारी साधु का स्वरूप -
यः स्वशक्तिमनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते।
साधुः केवलदेहोऽसौ निष्प्रतीकार-विग्रहः ।।४१४।। अन्वय :- य: निष्प्रतीकार-विग्रहः स्व-शक्तिं अनाच्छाद्य सदा तपसि वर्तते, असौ केवलदेहः (देहमात्रपरिग्रहः) साधुः (अस्ति)।
सरलार्थ :- जो मुनिराज शरीर का प्रतिकार अर्थात् शोभा, शृंगार, तेल मर्दनादि संस्कार करनेरूप राग परिणाम से रहित हैं, संयोगों में प्राप्त अपनी शरीर की सामर्थ्य और पर्यायगत अपनी आत्मा की पात्रता को न छिपाते हुए सदा अंतरंग एवं बाह्य तपों को तपने में तत्पर रहते हैं, वे देहमात्र परिग्रहधारी साधु हैं। ___ भावार्थ:- मुनिराज अपरिग्रह महाव्रत के धारक होते हैं, अत: वे धर्म के साधनरूप पीछी, कमंडलु और एक शास्त्र को छोड़कर अन्य कुछ रखते ही नहीं और इन तीनों के प्रति भी उन्हें राग नहीं रहता।
शरीररूप परिग्रह का स्वरूप कुछ अलग ही है। शरीर को तो अरहंत परमात्मा भी छोड़ नहीं
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