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चारित्र अधिकार
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सकते, क्योंकि जबतक आयुकर्म रहेगा, तबतक नामकर्म के निमित्त से प्राप्त शरीर तो रहेगा ही। तब शरीर के प्रति राग ही तो छोड़ सकते हैं। अत: मुनिराज शरीर में रोग हो जाय अथवा ये शरीर के लिये इष्ट-अनिष्ट संयोग प्राप्त हों तो वे उनके प्रति समताभाव ही रखते हैं। इसलिए शरीर रहते हुए भी वह उनका परिग्रह नहीं है, तथापि वह शरीर आत्मा के साथ तो रहेगा ही, बाह्य में उन्हें और सब दुनियाँ को भी वह शरीर दिखेगा ही। अत: मुनिराज को देहमात्र परिग्रहधारी कहने में आया है। उन्हें शरीर का संस्कार आदि करने का भाव ही नहीं आता, इसे ही चरणानुयोग में मुनिराज को शरीर का तेलमर्दनादि द्वारा संस्कार नहीं करना चाहिए - इस भाषा में कहने की जिनवाणी की पद्धति है।
मूल बात यह है कि निज शुद्धात्मा में लीनतारूप निश्चय तप आचरते हैं, तो बाह्य तप सहज अर्थात् हठ बिना हो जाते हैं। यही विषय प्रवचनसार गाथा २२८ और इसकी दोनों टीकाओं में आया है, उसे जरूर देखें। मुनिराज के आहार का स्वरूप -
एका सनोदरा भुक्तिर्मांस-मध्वादिवर्जिता।
यथालब्धेन भैक्षेण नीरसा परवेश्मनि ।।४१५।। अन्वय :- (पूर्वोक्त-साधोः) भुक्ति: पर-वेश्मनि भैक्षेण यथालब्धेन एकासनोदरा मांसमधु आदि-वर्जिता नीरसा (भवति)।
सरलार्थ :- देहमात्र परिग्रहधारी मुनिराज/श्रमण का आहार नियम से पराये घर पर ही होता है। वह आहार भिक्षा से प्राप्त, यथालब्ध, ऊनोदर के रूप में, दिन में एकबार, मद्य-मांस आदि सदोष पदार्थों से रहित और मधुर/मीठा रस आदि रसों से रहित प्राय: नीरस ही होता है।
भावार्थ :- मुनिराज को घर होता ही नहीं, अत: उनका आहार पराये-घर पर ही होना स्वाभाविक है। यथालब्ध आहार भिक्षा से ही प्राप्त होता है और मुनिराज के पास आहार के लिये अन्य कुछ साधन होता ही नहीं। आहार ऊनोदर होना इसलिए आवश्यक है, क्योंकि उन्हें मुख्यता से निजशद्धात्मा का ध्यान करना है। दिन में किया गया आहार ही अहिंसामय होता है। एक बार के भोजन से भी मनुष्य शरीर धर्म-साधन के लिये अनुकूल रहता है । सर्व अभक्ष्य पदार्थों के निषेध के लिये यहाँ मधु-मांस वर्जित कहा है। मीठा आदि रसों का परित्याग रसनेन्द्रिय की वासना जीतने के लिये और निद्रादि प्रमादों को टालने के लिए भी अत्यंत आवश्यक है। ___ इस श्लोक के भाव को अधिक स्पष्ट करनेवाली प्रवचनसार की गाथा २२९ है । अत: जिज्ञासु इस गाथा की दोनों आचार्यों की टीका को अवश्य देखें। मांस के साथ निगोदी जीवों का संबंध -
पक्वेऽपक्वे सदा मांसे पच्यमाने च संभवः।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/257]