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योगसार-प्राभृत
न्यायपाप-अन्यायपाप, सुक्रोध-कुक्रोध का भाव/मर्म समझने के लिए भावदीपिका शास्त्र का औदयिक भावाधिकार के अंतर्गत आये हुए कषायभावाधिकार में अप्रत्याख्यान कषाय का सामान्यस्वरूप नामक प्रकरण को देखिए-पृष्ठ ६२। व्यंग का वास्तविक स्वरूप -
येन रत्नत्रयं साधो श्यते मुक्तिकारणम् ।
स व्यङ्गो भण्यते नान्यस्तत्त्वतः सिद्धिसाधने ।।४०९।। अन्वय :- तत्त्वत: येन साधोः मुक्तिकारणं रत्नत्रयं नाश्यते सः सिद्धिसाधने व्यङ्गः भण्यते अन्य: न।
सरलार्थ :- वास्तव में जिस कारण से साधु का मोक्ष के लिए उपायभूत रत्नत्रयरूप धर्म नाश को प्राप्त होता है, उस कारण को सिद्धावस्थारूप सिद्धि के साधन में व्यंग अथवा भंग कहते हैं, अन्य कोई बाधक कारण नहीं है।
भावार्थ :- ग्रंथकार ने पूर्व श्लोक में जिनलिंग के ग्रहण करने में बाधक अनेक व्यंगों का कथन किया और इस श्लोक में उन व्यंगों को छोड़कर अन्य कोई व्यंग नहीं है, यह स्पष्ट किया । व्यंग की परिभाषा भी बता दी। जो रत्नत्रय धर्म में बाधक है, वही व्यंग है, अन्य कुछ व्यंग नहीं। यही विषय आचार्य जयसेन के प्रवचनसार की गाथा २५४ एवं टीका में आयी है। इन व्यंगधारी साधक को दिगम्बर अवस्था के साथ सल्लेखना धारण नहीं करना चाहिए, यह भी सूचित किया है। स्वयं ग्रंथकार अगले श्लोक में भी इस विषय को बता रहे हैं। व्यंग हमेशा व्यंग ही रहता है -
यो व्यावहारिको व्यङ्गो मतो रत्नत्रय-ग्रहे।
नसोऽपि जायतेऽव्यङ्गः साधोः सल्लेखना-कृतौ ।।४१०।। अन्वय :- यः रत्नत्रय-ग्रहे व्यावहारिक: व्यङ्गः मतः सः अपि सल्लेखना-कृतौ साधोः अव्यङ्गः न जायते।
सरलार्थ :- मुनियोग्य रत्नत्रय की प्राप्ति के लिये जो व्यावहारिक व्यंग माने गये हैं, वे ही व्यंग कोई मनुष्य (मरण समीप जानकर) सल्लेखना के अवसर पर मुनि-अवस्था धारण करना चाहे तो उसके लिये भी वे व्यंग ही बने रहते हैं, अव्यंग नहीं हो जाते।
भावार्थ :- यहाँ सल्लेखना के अवसर पर साधु बननेवाले के विषय में व्यावहारिक व्यंग की बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जो रत्नत्रयरूप जिनलिंग के ग्रहण में व्यावहारिक व्यंग श्लोक क्र. ४०८ के अनुसार माने गये हैं, वे सल्लेखना के अवसर पर अव्यंग नहीं हो जाते - व्यंग ही रहते हैं। अर्थात् सल्लेखना के अवसर पर जो मुनि बनना चाहे और उक्त प्रकार के व्यंगों में किसी व्यंग को लिये हुए हो तो वह मुनिदीक्षा को प्राप्त नहीं हो सकता। उसे दिगम्बर मुनिदीक्षा नहीं दी जा
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