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चारित्र अधिकार
२५३
अन्वय :- शान्तः, तपःक्षमः, अकुत्सः, त्रिषु वर्णेषु एकतम: कल्याणङ्गः (च) नरः लिङ्गस्य ग्रहणे योग्य: मतः।
सरलार्थ :- जो मनुष्य शान्त हैं, तपःश्चरण करने में समर्थ हैं, सर्व प्रकार के दोषों से रहित हैं, तीन वर्ण - ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य में से किसी एक वर्ण का धारक हैं, कल्याणरूप अर्थात् निरोग शरीर के धारक हैं और शरीर के सुंदर अंगोपांगों से सहित हैं; वे ही पुरुष जिनलिंग के ग्रहण करने के लिये योग्य माने गये हैं।
भावार्थ :- जिस जिनलिंग का रूप इस अधिकार के प्रारम्भ में दिया गया है, उसको धारण करने का पात्र कौन पुरुष है, उसकी चर्चा इस श्लोक में की है, जो सरलार्थ से ही स्पष्ट है।
यहाँ एक बात उल्लेखनीय है और वह यह कि श्री जयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की ‘वण्णेसु तीसु एक्को' इस गाथा की टीका में “एवंगुणविशिष्टो पुरुषो जिनदीक्षाग्रहणे योग्यो भवति" लिखकर यह भी लिखा है कि “यथायोग्यं सच्छूद्राद्यपि' जिसका आशय है कि योग्यता के
अनुसार सत् शूद्र और आदि शब्द से म्लेच्छ भी जिनदीक्षा का पात्र हो सकता है। यहाँ तो 'यथायोग्य' पद इस बात को सूचित करता है कि सब सत् शूद्रादिक नहीं किन्तु कुछ खास योग्यता प्राप्त शूद्रादिक जैसे म्लेच्छ राजादिक, जिन्हें जिनदीक्षा के योग्य बतलाया गया है।
इस श्लोक के अर्थ को ही व्यक्त करनेवाली जयसेनाचार्य की टीका में समागत गाथा २५३ को टीका सहित देखें। जिनलिंग-ग्रहण में बाधक व्यंग -
कुल-जाति-वयो-देह-कृत्य-बुद्धि-क्रुधादयः।
नरस्य कुत्सिता व्यङ्गास्तदन्ये लिङ्गयोग्यता ।।४०८।। अन्वय :- कुत्सिताः कुल-जाति-वयः-देह-कृत्य-बुद्धि-क्रुधादयः नरस्य व्यङ्गाः (सन्ति)। तद् अन्ये (सुकुलादयः) लिङ्गयोग्यता।।
सरलार्थ :- जिनलिंग के ग्रहण करने में कुकुल, कुजाति, कुवय, कुकृत्य, कुबुद्धि और कुक्रोधादिक ये मनुष्य के जिनलिंग ग्रहण करने में व्यंग हैं/भंग हैं/बाधक हैं। इनसे भिन्न सुकुल, सुजाति आदि जिनलिंग-ग्रहण करने की योग्यता लिये हुए हैं।
भावार्थ :- कुवय का अर्थ अतिबाल वय अथवा अति अधिक वय अर्थात् वृद्धावस्था प्राप्त उम्र दीक्षा के लिये योग्य नहीं है, ऐसा भाव यहाँ समझना चाहिए।
प्रश्न :- क्या क्रोध भी सुक्रोध होता है?
उत्तर :- हाँ. क्रोध भी सक्रोध होता है। जैसे – हिंसादि पाँच पाप भी अन्याय पाप और न्याय पाप होते हैं। मिथ्यात्व अनंतानुबंधी कषाय सहित पाप को अन्याय पाप और सम्यक्त्व सहित पाप को न्याय पाप कहते हैं। मिथ्यात्व सहित क्रोध-मानादि कषाय परिणाम कुक्रोधादि हैं और सम्यक्त्व सहित क्रोधादि परिणाम सुक्रोधादि समझना चाहिए, क्योंकि वे उपादेयबुद्धि से नहीं किये जाते ।
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