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चारित्र अधिकार
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सरलार्थ : - तुम्बी पात्र, वस्त्र तथा और भी कम्बलादि परिग्रह को निश्चितरूप से ग्रहण करनेवाले साधु के प्राणवध और चित्त का विक्षेप अर्थात् चंचलता का कैसे निवारण किया जा सकता है? नहीं किया जा सकता। इसका अर्थ उस साधु के प्राणवध और चित्तविक्षेप सदा बने रहते हैं । भावार्थ :- • पिछले श्लोक में प्रयुक्त 'चेलखण्ड ' पद यद्यपि 'खण्डवस्त्रमात्र' का वाचक है, परन्तु उपलक्षण से उसमें भाजन आदि भी शामिल हैं, इसी बात को यहाँ 'वस्त्र' पद के साथ ‘अलाबुभाजनं’ और ‘अन्यदपि' पदों के द्वारा स्पष्ट किया गया है, 'अन्यत्' शब्द कम्बल तथा मृदु शय्यादि का वाचक/सूचक है और इसलिए इन्हें भी 'सूत्रोक्त' परिग्रह की कोटि में लेना चाहिए।
इन पर-पदार्थों के ग्रहण में प्रवृत्त योगी के प्राणघात और चित्त के विक्षेप का निराकरण नहीं किया जा सकता, शुद्धोपयोग के न होने से वे दोनों बराबर होते ही रहते हैं । 'अलाबुभाजन' और प्रवचनसार का ‘दुग्धि का भाजन' दोनों एक ही अर्थ के वाचक हैं।
आचार्य जयसेनकृत प्रवचनसार की टीका में आयी हुई गाथा २३८ का भाव यहाँ पूर्ण लाने का प्रयास किया है। इस गाथा की टीका को भी जरूर पढ़ें ।
परिग्रह से मन की अस्थिरता अनिवार्य
अन्वय :
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स्थापनं चालनं रक्षां क्षालनं शोषणं यतेः ।
कुर्वतो वस्त्रपात्रादेर्व्याक्षेपो न निवर्तते । । ३९४ ॥
वस्त्र-पात्रादेः स्थापनं चालनं रक्षां क्षालनं शोषणं कुर्वतः यतेः व्याक्षेप: न
निवर्तते ।
सरलार्थ :• जो योगी / साधु वस्त्र - पात्रादि का रखना- धरना, चलाना, रक्षा करना, धोना, सुखाना आदि करता है, उसके चित्त का विक्षेप अर्थात् अस्थिरता नहीं मिटतीं ।
भावार्थ : - वस्त्र - पात्रादि के निमित्त से अनेक प्रकार के रागद्वेष / परिणामों का होना और मन में अस्थिरता होना स्वाभाविक है। वीतरागी जीवों को ही समता भाव होता है, उन्हें परद्रव्यों का संयोग-वियोग कुछ क्रोधादि विकार उत्पन्न नहीं करते; परंतु रागी जीवों को परद्रव्यों के संयोग के निमित्त से विक्षेप होना सहज है।
जयसेनाचार्य के अनुसार प्रवचनसार के २३९ गाथा का भाव और इस श्लोक के भाव में बहुत समानता पायी जाती है। अतः उक्त गाथा और उसकी टीका अवश्य देखें।
परिग्रहासक्त को आत्माराधना असंभव -
आरम्भोऽसंयमो मूर्च्छा कथं तत्र निषिध्यते ।
परद्रव्यरतस्यास्ति स्वात्म - सिद्धिः कुतस्तनी ।। ३९५ ।।
अन्वय :- तत्र (पूर्वोक्त-स्थितौ ) आरम्भः असंयमः (तथा) मूर्च्छा कथं निषिध्यते ? पर - द्रव्य - रतस्य स्वात्म-सिद्धिः कुतस्तनी अस्ति ।
सरलार्थ :- वस्त्र - पात्रादि की व्यवस्था करते हुए आरम्भ, असंयम तथा ममता का निषेध कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता और इसतरह परद्रव्य में आसक्त साधु के स्वात्मसिद्धि कैसी? अर्थात्
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