________________
योगसार-प्राभृत
२४६
और जबतक चित्तशुद्धि पूरी नहीं बनती तबतक कर्मों से मुक्ति भी पूर्णतः नहीं हो पाती । अतः मुक्ति के इच्छुक साधु को सभी परिग्रहों का त्याग कर अपने उपयोग को शुद्ध करना चाहिए। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने परिग्रह के त्याग को निरपेक्ष बतलाया है।
यदि त्याग निरपेक्ष न हो अर्थात् किसी भी वस्तु की अपेक्षा सहित हो तो उससे साधु के शुद्धोपयोग नहीं बनता। जैसे बाह्य में जबतक तुष का सम्बन्ध रहता है तब तक चाँवल में जो लालिमारूप मल है, वह दूर नहीं होता । जिस साधु के शुद्धोपयोग नहीं होता, उसके कर्मों से मुक्ि भी नहीं होती - राग-द्वेषरूप परिणामों से शुभाशुभ कर्म बँधते ही रहते हैं।
इस श्लोक का भाव स्पष्ट समझने के लिये प्रवचनसार की गाथा २२० की दोनों टीकाओं को अवश्य देखें । गाथा निम्नप्रकार है :
"पण हि णिरवेक्खो चागो ण हवदि भिक्खुस्स आसयविसुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते कहं णु कम्मक्खओ विहिदो ||
गाथार्थ :- यदि निरपेक्ष (किसी भी वस्तु की अपेक्षा रहित) त्याग न हो तो भिक्षु के भाव की विशुद्धि नहीं होती; और जो भाव में अविशुद्ध है उसके कर्मक्षय कैसे हो सकता है ?" चेलखण्ड धारक साधु की स्थिति
-
'सूत्रोक्त' मिति गृह्णानश्चेलखण्डमिति स्फुटम् ।
निरालम्बो निरारम्भः संयतो जायते कदा । । ३९२ ।।
अन्वय :- (यः) संयत: सूत्रोक्तं इति (मत्वा) चेलखण्डं स्फुटं गृह्णान: निरालम्ब: (च) निरारम्भः कदा जायते ? (कदा अपि नैव ) ।
:
सरलार्थ: - जो संयमी अर्थात् मुनिराज ‘आगम में कहा है' ऐसा कहकर खण्डवस्त्र/लंगोट आदि बाह्य परिग्रह को स्पष्टतया धारण करते हैं, वे निरालम्ब और निरारम्भ कब हो सकते हैं? अर्थात् कभी भी नहीं हो सकते।
भावार्थ :• यदि साधु के लिये खण्डवस्त्र आदि का रखना शास्त्र-सम्मत माना जाय तो वे साधु कभी भी आलम्बनरहित / पर की अपेक्षा- अधीनता से वर्जित और निरारम्भ अर्थात् स्व-परघात से शून्य नहीं हो सकेंगे। इसका अर्थ यह हुआ है कि सदा पराधीन तथा हिंसक बने रहेंगे और इसलिए स्वात्मोपलब्धिरूप सिद्धि एवं मुक्ति को प्राप्त नहीं कर सकेंगे ।
इस श्लोक का अविकल भाव समझने के लिये प्रवचनसार की जयसेनाचार्यकृत टीका में समागत गाथा २३७ एवं उसकी टीका को भी देखना अत्यंत उपयोगी है।
वस्त्र - पात्रग्राही साधु की स्थिति
-
अलाबु-भाजनं वस्त्रं गृह्णतोऽन्यदपि ध्रुवम् ।
प्राणारम्भो यतेश्चेतोव्याक्षेपो वार्यते कथम् ।। ३९३ ।।
अन्वय :
अलाबु - भाजनं वस्त्रं (तथा) अन्यत् अपि ध्रुवं गृह्णतः यतेः प्राणारम्भ:, (च) चेतोव्याक्षेपः कथं वार्यते ? (नैव वार्यते ) ?
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/246]