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चारित्र अधिकार
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ध्रुवः बन्धः (भवति)। ततः तैः (साधुभिः) सर्वथा (उपधयः) त्याज्याः (सन्ति)।
सरलार्थ :- आहार-विहारादि के समय मुनिराज के शरीर की क्रिया के निमित्त से और प्रमादरूप परिणाम के सद्भाव से अन्य जीव की हिंसा होने पर मुनिराज को कर्म का बंध होता है।
और कभी कायचेष्टा के कारण जीव के घात होनेपर भी यदि प्रमादरूप परिणाम न हों तो कर्म का बंध नहीं होता; परंतु परिग्रह के कारण नियम से कर्म का बंध होता ही है। इसलिए मुनिराज परिग्रह का सर्वथा त्याग करते हैं।
भावार्थ :- कायचेष्टा से जीव का घात होने पर तो बन्ध के विषय में अनेकान्त है - कभी बंध होता है और कभी बंध नहीं भी होता । अन्तरंग में यदि प्रमादरूप अशुद्ध भाव का सद्भाव है तो बंध होता है और सद्भाव नहीं है तो बन्ध नहीं होता, परन्तु परिग्रह के विषय में बन्ध का अनेकान्त नहीं किन्तु एकान्त है - बंध अवश्य ही होता है। इसलिए सच्चे मुमुक्षु साधु परिग्रहों का सर्वथा त्याग करते हैं - किसी भी परिग्रह में ममत्व नहीं रखते। इस श्लोक का आधार प्रवचनसार की गाथा २१९ होगी, ऐसा लगता है। गाथा निम्नप्रकार है
हवदि व ण हवदि बंधो मदम्हि जीवेऽध कायचेटम्मि।
बंधो धुवमुवधीदो इदि समणा छड्डिया सव्वं ।। गाथार्थ :- अब (उपधि के संबंध में ऐसा है कि) कायचेष्टापूर्वक जीव के मरने पर बंध होता है अथवा नहीं होता; (किन्तु) उपधि/परिग्रह से निश्चय ही बंध होता है; इसलिये श्रमणों (अर्हन्तदेवों) ने सर्व परिग्रह को छोड़ा है।
योगसारप्राभृत के इस श्लोक का यथार्थ एवं पूर्ण भाव समझने के लिये प्रवचनसार के उक्त गाथा की दोनों टीकाओं का अध्ययन जरूर करें। अति अल्प परिग्रह भी बाधक -
एकत्राप्यपरित्यक्ते चित्तशुद्धिर्न विद्यते।
चित्तशुद्धिं बिना साधोः कुतस्त्या कर्म-विच्युतिः ।।३९१।। अन्वय :- एकत्र अपि अपरित्यक्ते (उपधौ) चित्तशुद्धिः न विद्यते । (च) चित्तशुद्धिं विना साधोः कर्म-विच्युति: कुतस्त्या ? ।
सरलार्थ :- यदि मुनिराज एक भी परिग्रह का त्याग नहीं करेंगे अर्थात् अत्यल्प भी परिग्रह का स्वीकार करेंगे तो - उनके चित्त की पूर्णतः विशुद्धि नहीं हो सकती और चित्तशुद्धि के बिना साधु की कर्मों से मुक्ति कैसे होगी? अर्थात् परिग्रह सहित साधु कर्मों से मुक्त नहीं हो सकते।
भावार्थ :- क्षेत्र, वास्तु, धन-धान्यादि के भेद से बाह्य परिग्रह दस प्रकार का और मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादि के भेद से अन्तरंग परिग्रह चौदह प्रकार का कहा गया है। इन चौबीस प्रकार के परिग्रहों में - से यदि एक का भी त्याग करना शेष रहे तो चित्तशुद्धि पूरी नहीं होती
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