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________________ २४४ योगसार-प्राभृत सरोजमिव तोयेषु निष्प्रमादो न लिप्यते ।।३८९।। अन्वय :- तोयेषु सरोजं इव (य:) योगी (षट्सु अपि कायेषु) निष्प्रमादः (वर्तते सः कर्मणा) न लिप्यते । (य: योगी) षट्सु अपि कायेषु सप्रमादः (वर्तते सः कर्मणा) प्रबध्यते । सरलार्थ :- जिसप्रकार जल में कमल जल से सर्वथा अस्पर्शित रहता है अर्थात् जल का कमल से किंचित् भी स्पर्श नहीं होता; उसीप्रकार जो योगी प्रमाद से षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते, वे ज्ञानावरणादि कर्मों से नहीं बंधते और जो प्रमाद से षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त होते हैं, वे कर्मों से बंधते हैं। भावार्थ :- हिंसादि पाँचों पापों में मूल तो प्रमाद ही है। राग-द्वेषरूप परिणाम को प्रमाद कहते हैं। प्रमादभाव प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान पर्यंत रहता है। प्रत्येक गुणस्थान में होनेवाला प्रमादभाव भिन्न-भिन्न प्रकार का है। इस श्लोक में छठवें गुणस्थान में होनेवाले प्रमाद की मुख्यता है; क्योंकि यहाँ चारित्र-अधिकार में मुनि की मुख्यता से ग्रंथकार समझा रहे हैं और श्लोक में योगी शब्द भी है, जिसका अर्थ मुख्यता से मुनि ही होता है। जब मुनिराज छठवें गुणस्थान में आते हैं तो वे प्रमादी कहलाते हैं; तथापि महाव्रतों का स्वीकार होने से वे षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते; लेकिन यदि वे मुनिराज छठवें गुणस्थान से च्युत होकर नीचे के गुणस्थानों में आते हैं और अयत्नाचार से प्रवृत्त होते हैं, तो वे षट्काय जीवों की हिंसा में बाह्य में मुनि-अवस्था होने पर भी प्रवृत्त होते हैं और उनको हिंसाजन्य परिणामों से कर्म का बंध होता है। जो मुनिराज छठवें-सातवें गुणस्थान में ही रहते हुए षट्काय जीवों की हिंसा में प्रवृत्त नहीं होते; उन्हें हिंसाजन्य कर्मों का बंध नहीं होता। यहाँ जो कर्मबंध नहीं होता और होता है - ऐसा जो कथन किया है वह मात्र हिंसाजन्य पाप को लेकर ही किया हुआ समझना चाहिए। छठवें और सातवें आदि गुणस्थानों में भी भूमिका के अनुसार होनेवाले अबुद्धिपूर्वक परिणामों के निमित्त से जो कर्मबंध होता है, उसका यहाँ निषेध नहीं है। प्रवचनसार गाथा २१८ का भाव इस श्लोक में बताने का सफल प्रयास ग्रंथकार ने किया है। प्रवचनसार की गाथा निम्नप्रकार है : अयदाचारो समणो, छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। चरदि जदं जदि णिच्चं कमलं व जले णिरूवलेवो।। गाथार्थ :- अप्रयत आचारवाला श्रमण छहों काय संबंधी वध का करनेवाला मानने में - कहने में आया है; यदि सदा प्रयतरूप से आचरण करे तो जल में कमल की भाँति निर्लेप कहा गया है। परिग्रह से बंध अनिवार्य - साधुर्यतोऽङ्गिघातेऽपि कर्मभिर्बध्यते न वा। उपधिभ्यो ध्रुवो बन्धस्त्याज्यास्तैः सर्वथा ततः ।।३९०।। अन्वय :- (यतः) अङ्गिघातेऽपि साधुः कर्मभिः बध्यते वा न (बध्यते)। तु उपधिभ्यः [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/244]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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