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चारित्र अधिकार
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हित्वापि कञ्चकं सर्पो गरलं न हि मुञ्चते ।।३८७।। अन्वय :- यथा सर्पः कञ्चुकं हित्वा अपि गरलं न हि मुञ्चते (तथा) प्रमादी बाह्यं ग्रन्थं मुक्त्वापि आन्तरं न त्यज्यति । ___सरलार्थ :- जिसप्रकार अतिशय विषैला सर्प काँचली को छोड़कर भी विष को नहीं छोडता है तो उसका काँचली का छोडना व्यर्थ है। उस
गो प्रमादी साधक अर्थात् मुनिराज हैं वे बाह्य परिग्रह को छोड़कर भी अंतरंग परिग्रह को नहीं छोडते हैं तो उनका बाह्य परिग्रह का छोडना व्यर्थ है।
भावार्थ :- मुनिराज के मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगीपने को इस श्लोक में स्पष्ट किया है। इसप्रकार की मुनि-अवस्था अनंतबार स्वीकार की तो भी कुछ लाभ नहीं है, उससे संसार ही बढ़ता है। इसी आशय का श्लोक आचार्य मल्लिषेण ने सज्जनचित्त-वल्लभ ग्रंथ में लिखा है -
किं वस्त्र-त्यजनेन भो मुनिरसावेतावता जायते।
क्ष्वेडेन च्युतपन्नगो गतविषः किं जातवान् भूतले ॥ श्लोकार्थः- हे मुनि! वस्त्र को त्यागने मात्र से ही क्या कोई मुनि हो जाता है? क्या इस भूतल पर काँचली के छोड़ने से कोई सर्प निर्विष हुआ है? । मात्र बाह्यशुद्धि अविश्वसनीय -
अन्तःशुद्धिं बिना बाह्या न साश्वासकरी मता।
धवलोऽपि बको बाह्ये हन्ति मीनानेकशः ।।३८८।। अन्वय :- (यथा) बकः बाह्ये धवलः अपि अनेकशः मीनान् हन्ति । तथा अन्तःशुद्धिं विना बाह्या (शुद्धिं) साश्वासकरी न मता। __सरलार्थ :- जैसे बगुला बाह्य में धवल/उज्ज्वल होने पर भी अंतरंग अशुभ परिणामों से अनेक मछलियों को मारता ही रहता है; वैसे अन्तरंग की शुद्धि के बिना अर्थात् निश्चयधर्मरूप वीतरागता के अभाव में मात्र बाह्यशुद्धि अर्थात् मात्र २८ मूलगुणों के पालनरूप व्यवहारधर्म/ द्रव्यलिंगपना विश्वास के योग्य नहीं है अर्थात् कुछ कार्यकारी नहीं है - संसारवर्धक ही है।
भावार्थ :- मात्र बाह्यशुद्धि अर्थात् अट्ठाईस मूलगुणों के पालन से मोक्ष की प्राप्ति होने लगेगी तो अनंतबार मुनि-अवस्था का स्वीकार करने पर भी द्रव्यलिंगी संसार के नेता बने रहते हैं - यह आगम का कथन असत्य सिद्ध होता है। तब तो फिर अभव्य को भी सिद्ध होने में आपत्ति नहीं रहेगी। मिथ्यात्व के रहते हुए भी मोक्षमार्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति होना सम्भव हो सकेगा। इसलिए बाह्यशुद्धि मोक्षमार्ग एवं मोक्ष के लिये विश्वासयोग्य नहीं है, इस परमसत्यरूप को स्वीकार करना चाहिए। प्रमाद और अप्रमादभाव का फल -
योगी षट्स्वपि कायेषु सप्रमादः प्रबध्यते ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/243]