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योगसार-प्राभृत
पश्चाज्जायेत न वा हिंसा प्राण्यन्तराणां तु|| श्लोकार्थ :- जो साधु यत्नाचार से प्रवृत्त हो रहा है उसके रागादि के आवेश का अभाव होने से किसी का प्राणव्यपरोपण हो जाने पर भी कभी हिंसा नहीं होती । रागादि के वश प्रवृत्त होनेवाली प्रमादावस्था में तो कोई जीव मरे या न मरे हिंसा आगे-आगे दौड़ती हुई चलती है - निश्चित रूप से हिंसा होती ही है। क्योंकि जो जीव कषायरूप प्रवृत्त होता है वह पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता है पश्चात् दूसरे जीवों का घात हो या न हो - यह उनके भाग्य से सम्बन्ध रखता है।" प्रमाद रहित साधक का उदाहरण सहित कथन -
पादमुत्क्षिपतः साधोरीर्यासमिति-भागिनः । यद्यपि म्रियते सूक्ष्मः शरीरी पाद-योगतः ।।३८५।। तथापि तस्य तत्रोक्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि नागमे।
प्रमाद-त्यागिनो यद्वन्निर्मूर्च्छस्य परिग्रहः ।।३८६।। अन्वय :- यद्वत् निर्मूर्छस्य परिग्रहः (न उक्तः तद्वत्) यद्यपि ईर्यासमिति-भागिनः साधोः पादं-उत्क्षिपत: पाद-योगत: सूक्ष्मः शरीरी म्रियते तथापि तत्र आगमे तस्य प्रमाद-त्यागिनः सूक्ष्मः अपि बन्धः न उक्तः।
सरलार्थ :- जिसप्रकार मूर्छा अर्थात् ममता रहित जीव के परिग्रह पाप नहीं कहा जाता, उसीप्रकार यद्यपि ईर्या समिति से सहित अर्थात् भले प्रकार देख-देखकर सावधानी से चलते हुए योगी के पैर को उठाकर रखते समय कभी-कभी सूक्ष्म जंतु (उड़ता हुआ) पैर तले आकर मर जाता है; तथापि जिनागम में उस प्रमादत्यागी योगी के उस जीवघात से सूक्ष्म भी बंध का होना नहीं कहा गया है।
भावार्थ :- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६ के सूत्र १३वें में 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा' कहा है अर्थात् प्रमाद (राग-द्वेष) के योग से प्राणों के घात को हिंसा कहा है और शेष चार पापों के लक्षण में भी प्रमत्तयोगात्' पद का सम्बन्ध लेने की अनिवार्यता बताई है। तात्पर्य यह है कि प्रमाद को ही पाप कहा जाता है, प्रमाद के अभाव में होनेवाली क्रियामात्र को हिंसा नहीं कहा जाता । मुनिराज प्रमाद रहित हैं, अत: उनके द्वारा कदाचित् किसी जीव का घात हो भी जाता है तो भी उसे हिंसा नहीं कहते हैं और उससे उन्हें सूक्ष्म भी बन्ध नहीं होता। ___पिछले पद्य में प्रमाद-अप्रमाद संबंधी जो कुछ कहा है, उसको ही इन दोनों श्लोकों में उदाहरण के साथ स्पष्ट करके बतलाया है। प्रवचनसार गाथा २३२ एवं २३३ की जयसेनाचार्यकृत टीका में भी इसी आशय को स्पष्ट किया है। प्रमादी साधक का स्वरूप -
प्रमादी त्यजति ग्रन्थं बाह्य मुक्त्वापि नान्तरम् ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/242]