________________
२४८
योगसार-प्राभृत
नहीं हो सकती।
भावार्थ :- साधु हो अथवा श्रावक उसे अपने भूमिका के अनुसार अरुचिपूर्वक राग-द्वेष परिणाम तो रहेंगे; लेकिन ममता अर्थात् मिथ्यात्वजन्य ममताभाव नहीं रहेगा।
आसक्ति भाव परद्रव्य से मुझे लाभ है, सुख है, वह मेरा ही है इस प्रकार के परिणाम को व्यक्त करता है। जब तक जीव या जड़ कोई भी द्रव्य मेरे सुख-दुःख के लिये कारण है, ऐसी श्रद्धा रहेगी, तबतक सम्यक्त्व ही नहीं है अर्थात् धर्म का आरम्भ ही नहीं हुआ, ऐसा समझना चाहिए।
धर्म प्रगट करने के लिये द्रव्य-गुण-पर्याय की स्वतंत्रता का निर्णय आगम तथा युक्ति से होना अत्यंत आवश्यक है।
यह श्लोक प्रवचनसार गाथा २२१ का मानो पद्यानुवाद ही है। ग्राह्य उपधि/परिग्रह का स्वरूप -
न यत्र विद्यते च्छेदः कुर्वतो ग्रह-मोक्षणे।
द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय साधुस्तत्र प्रवर्तताम् ।।३९६।। अन्वय :- द्रव्यं क्षेत्रं परिज्ञाय ग्रह-मोक्षणे कुर्वत: यत्र च्छेदः न विद्यते तत्र साधुः प्रवर्तताम् ।
सरलार्थ :- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को भले प्रकार जानकर जिन बाह्य परिग्रह का ग्रहणत्याग करते हुए साधु के दोष नहीं लगते, उनमें साधु को प्रवृत्त होना चाहिए।
भावार्थ :- इस श्लोक में अपवाद मार्ग को लेकर कथन किया गया है। अशक्ति के कारण अपवाद मार्ग में कुछ बाह्य परिग्रह का ग्रहण किया जाता है। उनका कथन प्रवचनसार गाथा २२५ के आधार से संक्षेप में करते हैं। ग्रहण योग्य बाह्य परिग्रह चार बतलाये हैं - १. मुनिराज के शरीर के आकाररूप पुद्गल पिण्ड अर्थात् द्रव्यलिंग, २. गुरु के उपदेशरूप वचन, ३. परमागम का वाचन और ४. रत्नत्रय सम्पन्न पुरुषों में भक्तिरूप व्यवहार विनय ।
पाठक प्रवचनसार गाथा २२५ की दोनों आचार्यों की टीका पढ़कर अपनी जिज्ञासा पूर्ण कर सकते हैं। अग्राह्य परिग्रह का स्वरूप
__संयमो हन्यते येन प्रार्थ्यते यदसंयतैः ।
येन संपद्यते मूर्छा तन्न ग्राह्यं हितोद्यतैः ।।३९७।। अन्वय :- हितोद्यतैः (साधुभिः) तत् न ग्राह्य येन संयमः हन्यते, येन मूर्छा संपद्यते, (तथा) यत् असंयतैः प्रार्थ्यते।
सरलार्थ :- जो साधु अपनी हित की साधना में उद्यमी हैं, वे उन पदार्थों को ग्रहण नहीं करते, जिनसे उनकी संयम की हानि हो; ममत्व परिणाम की उत्पत्ति हो अथवा जो पदार्थ असंयमी के द्वारा
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/248]