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चारित्र अधिकार
निर्ममत्व मुनिराज का स्वरूप
उपधौ वसतौ सङ्के विहारे भोजने जने । प्रतिबन्धं न बध्नाति निर्ममत्वमधिष्ठितः । । ३७० ।।
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अन्वय :- • उपधौ वसतौ सङ्घ विहारे भोजने जने निर्ममत्वं- अधिष्ठित: (योगी) प्रतिबन्धं न बध्नाति ।
सरलार्थ :- आगम से मान्यता प्राप्त पीछी, कमंडलु, शास्त्ररूप धर्म के बाह्य साधनस्वरूप परिग्रह में अथवा देहमात्र परिग्रह में, निर्जन - जंगलस्थित निवासयोग्य गुफादिक आवासस्थान में, कथंचित् परिचित साधर्मी मुनिराजों में, शास्त्रानुसार किये जानेवाले विहारकार्य में, अनुद्दिष्ट सरसनीरस आहार में, भक्ति करनेवाले भक्तजनों में निर्ममत्त्व को प्राप्त मुनिराज राग अर्थात् ममत्व नहीं करते ।
भावार्थ :- प्रवचनसार गाथा २१५ तथा उसकी दोनों टीकाओं को अवश्य देखें | अमृतचंद्राचार्यकृत टीका का भावार्थ हम नीचे दे रहे हैं - आगमविरुद्ध आहारविहारादि तो मुनि ने पहले ही छोड़ दिये हैं। अब संयम के निमित्तपने की बुद्धि से मुनि के जो आगमोक्त आहार, अनशन, गुफादि में निवास, विहार, देहमात्र परिग्रह, अन्य मुनियों का परिचय और धार्मिक चर्चा-वार्ता पायी जाती है, उनके प्रति भी रागादि करना योग्य नहीं है; इसप्रकार आगमोक्त आहार-विहारादि में भी प्रतिबंध प्राप्त करना योग्य नहीं है, क्योंकि उससे संयम में छेद होता है।
प्रमाद ही हिंसा में कारण -
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जब मुनिराज शुद्धोपयोगी हो जाते हैं तब अन्य किसी भी परद्रव्य में राग होता ही नहीं । जब व्यक्त ज्ञान एक आत्मा में संलग्न हो जाता है, तब आत्मा का अन्य विषयों से व्यावृत्त हो जाना स्वाभाविक है।
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अशने शयने स्थाने गमे चङ्क्रमणे ग्रहे ।
प्रमादचारिणो हिंसा साधोः सान्ततिकीरिता ।। ३७१ । ।
अन्वय :- अशने शयने स्थाने गमे चङ्क्रमणे ग्रहे प्रमादचारिणः साधोः सान्ततिकीरिता हिंसा ।
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सरलार्थ :- जो साधु खाने-पीने में, लेटने-सोने में, उठने-बैठने में, चलने-फिरने में, हस्तपादादिक के पसारने में, किसी वस्तु को पकड़ने में, छोड़ने या उठाने - धरने में प्रमाद करता है यत्नाचार से प्रवृत्त नहीं होता उसके निरन्तर हिंसा कही गयी है - भले ही वैसा करने में कोई जीव मरे या न मरे ।
भावार्थ :- चारित्र में तथा २८ मूलगुणों में हिंसा की पूर्णतः निवृत्तिरूप जिस अहिंसा महाव्रत की प्रधानता है, उसको दृष्टि में रखते हुए यहाँ उस साधु को निरन्तर हिंसा का भागी बतलाया है, जो
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