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योगसार-प्राभृत
अन्वय :- छेदः निराकृत: भूत्वा चारित्राचरण-उद्यतः यतिः निबन्धानि मुञ्चमानः सदा विहरताम्।
सरलार्थ :- छेदोपस्थापक मुनिराज पहले तो दोष रहित होवें, स्वीकार किये हुए चारित्र के आचरण करने में उद्यमी, उत्साही एवं दत्तचित्त अर्थात् विशेषरूप से सावधान रहें और (सर्वथा उपादेयस्वरूप निज भगवान आत्मा में मग्न/लीन होते हुए) किसी भी परद्रव्य में रागादि भावों को न करते हुए निरंतर विहार करें।
भावार्थ :- विहार की पात्रता के लिये तीन विषय बतलाये हैं - १. लगे हुए दोषों का परिहार करें, २. स्वीकृत चारित्र के आचरण में प्रयत्नशील रहें और ३. परद्रव्य में आसक्ति न करें।
प्रवचनसार गाथा २१३ जो निम्नानुसार है - उसका पूर्ण भाव ग्रंथकार ने इस श्लोक में व्यक्त करने का सफल प्रयास किया है -
___ "अधिवासे व विवासे छेदविहणो भवीय सामण्णे।
समणो विहरदु णिच्चं परिहरमाणो णिबंधाणि।। गाथार्थ:- अधिवास में (आत्मवास में अथवा गुरुओं के सहवास में) वसते हुए या विवास में (गुरुओं से भिन्न वास में) बसते हुए, सदा (परद्रव्यसंबंधी) प्रतिबंधों को परिहरण करता हुआ श्रामण्य में छेदविहीन होकर श्रमण विहरो।”
इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र ने मुनिराज विहार में क्या करे, इसका निम्न शब्दों में खुलासा किया है - “वास्तव में सभी परद्रव्य-प्रतिबंध उपयोग के उपरंजक होने से निरुपराग उपयोगरूप श्रामण्य के छेद के आयतन हैं; उनके अभाव से ही अछिन्न श्रामण्य होता है। इसलिये आत्मा में ही आत्मा को सदा अधिकृत करके (आत्मा के भीतर) बसते हुए अथवा गुरु रूप से गुरुओं को अधिकृत करके (गुरुओं के सहवास में) निवास करते हुए या गुरुओं से विशिष्ट – भिन्न वास में वसते हुए, सदा ही परद्रव्यप्रतिबंधों को निषेधता (परिहरता) हुआ श्रामण्य में छेदविहीन होकर श्रमण वर्तो।" पूर्ण श्रमणता का स्वामी -
शुद्ध-रत्नत्रयो योगी यत्नं मूलगुणेषु च ।
विधत्ते सर्वदा पूर्णं श्रामण्यं तस्य जायते ।।३६९।। अन्वय :- (य:) योगी शुद्ध-रत्नत्रयः च मूलगुणेषु सर्वदा यत्नं विधत्ते तस्य पूर्ण श्रामण्यं जायते।
सरलार्थ :- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप शुद्ध रत्नत्रयस्वरूप धारक जो योगी अर्थात् मुनिराज २८ मूलगुणों के पालन करने में निरंतर परिपूर्ण प्रयत्न करते हैं, उनको पूर्ण श्रमणता होती है।
भावार्थ :- प्रवचनसार गाथा २१४ एवं दोनों आचार्यों की टीका को अवश्य पढ़ें । वहाँ निज शुद्धात्मा में मग्नता को परिपूर्ण श्रमणता कहा है।
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