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योगसार- प्राभृत
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भोजन- शयनादिरूप उक्त क्रियाओं में प्रमाद से वर्तता है - चाहे उन क्रियाओं के करने में कोई जीव मरे या न मरे। इसी से श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने प्रवचनसार गाथा २१७ में कहा है 'मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा' कोई जीव मरे या न मरे, जो यत्नाचार से प्रवृत्त नहीं होता ऐसे प्रमादी के निश्चितरूप से बराबर हिंसा होती रहती है । अत: हिंसा में प्रधान कारण प्रमादचर्या है - जीवघात नहीं । जीवघात के न होनेपर भी प्रमादी को हिंसा का दोष लगता है ।
प्रमाद - अप्रमाद का उदाहरण -
गुणायेदं सयत्नस्य दोषायेदं प्रमादिनः ।
सुखाय ज्वरहीनस्य दुःखाय ज्वरिणो घृतम् ।। ३७२ ।।
अन्वय :- ( यथा) ज्वरहीनस्य घृतं सुखाय, ज्वरिणः दुःखाय (भवति) सयत्नस्य इदं (आचरण) गुणाय, प्रमादिन: (च) इदं दोषाय (भवति) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार ज्वररहित मनुष्य को घी का सेवन शरीर के लिये सुखदाता सिद्ध होता है और उस ही घी का सेवन ज्वरसहित मनुष्य को दुःख का कारण बन जाता है; उसीप्रकार यत्नाचार से अर्थात् प्रमादरहित होकर किया गया खाना-पीना, लेटना - सोना आदि सब आचरण एक को गुणकारी अर्थात् संवर- निर्जरारूप धर्म का कारण सिद्ध होता है और अयत्नाचार से अर्थात् प्रमादसहित होकर किया गया वही खाना-पीना आदि सब आचरण दूसरे को दुःखकारी अर्थात् आस्रव-बंध का कारण बन जाता है ।
भावार्थ :- प्रमादभाव / प्रमत्तभाव मिथ्यात्व गुणस्थान से प्रमत्तविरत गुणस्थान पर्यंत होता है । प्रत्येक गुणस्थान के अनुसार प्रमत्तभाव अलग-अलग जानना चाहिए। यहाँ प्रकरण मुनिराज का चल रहा है । अतः छठवें गुणस्थान में होनेवाले प्रमादभाव को ही लेना योग्य है। इसलिए संज्वलन कषाय-४, विकथा-४, इंद्रियों के विषय - ५, निद्रा एवं स्नेह को लेना चाहिए। आचार्य पूज्यपाद के शब्दों में देखा जाय तो कुशलेषु अनादरः प्रमादः - शुद्धोपयोगरूप आत्मकार्य में अनादर अर्थात् उत्साह का अभाव ही प्रमाद है, यह बात स्पष्ट है । ज्ञान होने पर भी चारित्र मिथ्या -
ज्ञानवत्यपि चारित्रं मलिनं पर- पीडके ।
कज्जलं मलिनं दीपे सप्रकाशेऽपि तापके । । ३७३ ॥
अन्वय :- ( यथा) तापके दीपे सप्रकाशे (सति) अपि कज्जलं मलिनं (भवति) । परपीडके ज्ञानवति अपि चारित्रं मलिनं (भवति ) ।
सरलार्थ :- जिसप्रकार उष्णता प्रदायक दीपक में सुखदाता प्रकाश होने पर भी काजल मलिन होता है, उसीप्रकार सुखदाता सर्वज्ञ जिनेन्द्र - कथित शास्त्र का ज्ञान होने पर भी जिसके आचारविचार-उच्चार से समाज या व्यक्तिविशेष को पीड़ा / अर्थात् दुःख ही होता रहता है तो उसका चारित्र मलिन - अर्थात् मिथ्या होने से संसार-वर्धक सिद्ध होता है ।
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