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________________ जीव अधिकार का उद्योतन (प्रकाशन) करता है, उसीप्रकार अपना भी उद्योतन करता है; अपने उद्योतन में किसी पर की अपेक्षा नहीं रखता। उसीप्रकार ज्ञान भी अपने को तथा पर-पदार्थ समूह को स्वभाव से ही जानता है, अपने को अथवा अन्य पदार्थों को जानने में किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता। क्षायोपशमिक एवं क्षायिक ज्ञान का स्वरूप - क्षायोपशमिकं ज्ञानं कर्मापाये निवर्तते । प्रादुर्भवति जीवस्य नित्यं क्षायिकमुज्वलम् ।।२५॥ अन्वय :- कर्मापाये (कर्म-अपाये) जीवस्य क्षायोपशमिकं ज्ञानं निवर्तते, नित्यं उज्ज्वलं क्षायिकं (ज्ञानं) प्रादुर्भवति। सरलार्थ :- मोहनीय आदि चारों घाति कर्मों के नाश होने पर जीव का क्षायोपशमिक ज्ञान नष्ट हो जाता है और निर्मल क्षायिक ज्ञान सदा उदय को प्राप्त होता है अर्थात् सदा व्यक्त रहता है। भावार्थ :- मति, श्रुत, अवधि एवं मन:पर्यय ज्ञान - ये चारों अल्प विकसित ज्ञान नियम से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतरायकर्म के क्षयोपशम के साथ संबंध रखनेवाले हैं। इसलिए जब इन चारों घाति कर्मों का नाश होता है, तब क्षायिक ज्ञान प्रगट होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञानों का अभाव हो जाता है। क्षायिकज्ञान और क्षायोपशमिकज्ञान दोनों एक साथ नहीं रहते। किसी संसारी (अष्टकर्म सहित) जीव को क्षायोपशमिक मति, श्रुत दो ज्ञान रह सकते हैं किसी को मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मनःपर्यय - ये तीन ज्ञान और किसी को मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ये चार ज्ञान भी एक साथ रह सकते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मों के क्षय के निमित्त से प्रगट होनेवाला केवलज्ञान/पूर्णज्ञान एक ही रहता है। यह क्षायिक ज्ञान नित्य व्यक्त रहता है, भविष्य में अनंतकाल में इसका कभी नाश नहीं होता। केवलज्ञान की सत्-असत् विषय में प्रवृत्ति - सन्तमर्थमसन्तं च काल-त्रितय-गोचरम् । अवैति युगपज्ज्ञानमव्याघातमनुत्तमम् ।।२६ ।। अन्वय :- अव्याघातं अनुत्तमं (क्षायिकं) ज्ञानं काल-त्रितय-गोचरं सन्तं असन्तं अर्थं च युगपद् अवैति। सरलार्थ :- अव्याघात और सर्वोत्तम क्षायिकज्ञान त्रिकाल (वर्तमान, भूत, भविष्य) विषयक सत्-असत् सभी पदार्थों को युगपत् जानता है। भावार्थ :- क्षायिक ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान किसी भी परपदार्थ से बाधित नहीं है । सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों को भी हस्तामलकवत् स्पष्ट जानता है। जैसे परमाणु, कालाणु, समय, प्रदेश, अविभाग प्रतिच्छेद, एक समय में होनेवाला द्रव्य का परिवर्तन ये सर्व पदार्थ सूक्ष्म होने पर भी केवलज्ञान [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/31]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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