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________________ ३० योगसार-प्राभृत इस विषय के लिये अवश्य देखें। ज्ञान, दूरवर्ती पदार्थ को भी स्वभाव से जानता है - दवीयांसमपि ज्ञानमर्थं वेत्ति निसर्गतः। अयस्कान्त: स्थितं दूरे नाकर्षति किमायसम् ।।२३।। अन्वय :- ज्ञानं दवीयांसं अर्थं अपि निसर्गत: वेत्ति (यथा) अयस्कान्त: दूरे स्थितं आयसं किं न आकर्षति ? (अपितु आकर्षति एव)। सरलार्थ :- ज्ञान, क्षेत्र-कालादि की अपेक्षा से दूरवर्ती पदार्थ समूह को भी स्वभाव से जानता है। क्या चुम्बकपाषाण दूरी पर स्थित लोहे को अपनी ओर नहीं खींचता ? खींचता ही है। भावार्थ :- जिसप्रकार चुम्बकपाषाण दूर स्थित लोहे को स्वभाव से अपनी ओर खींच लेता है; उसीप्रकार केवलज्ञान भी क्षेत्र की अपेक्षा तथा काल की अपेक्षा दूरवर्ती पदार्थों को भी स्वभाव से स्पष्ट जानता है। ___ इस पर कोई यह शंका कर सकता है कि चुम्बक की शक्ति तो सीमित है, उसकी शक्ति-सीमा के भीतर जब लोहा स्थित होता है, तभी वह उसको खींचकर अपने से चिपका लेता है, जब लोहा सीमा के बाहर होता है तब उसे नहीं खींच पाता; तब क्या केवलज्ञान भी सीमित क्षेत्र-काल के पदार्थों को ही अपना विषय बनाता है ? इसका समाधान इतना ही है कि दृष्टान्त हमेशा एकदेश होता है, सर्वदेश नहीं। अत: चुम्बक की तरह ज्ञान की शक्ति को सीमित नहीं समझ लेना चाहिए, उसमें प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने से दूरवर्ती तथा अन्तरित ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म पदार्थों को अपना विषय बनाने की अनन्तानन्तशक्ति है, उसमें कोई भी पदार्थ बिना जाने नहीं रहता। इसी से ज्ञान को सर्वगत कहा है। वह अपने आत्मप्रदेशों की अपेक्षा नहीं, किन्तु जानने की अपेक्षा सर्वगत है। ज्ञान, स्वभाव से ही स्व-पर प्रकाशक है - ज्ञानमात्मानमर्थं च परिच्छित्ते स्वभावतः। दीप उद्योतयत्यर्थं स्वस्मिन्नान्यमपेक्षते।।२४ ।। अन्वय :- ज्ञानं स्वभावतः आत्मानं अर्थं च परिच्छित्ते (यथा) दीपः अर्थं उद्योतयति स्वस्मिन् अन्यं न अपेक्षते। सरलार्थ :- ज्ञान अपने को और पदार्थ को स्वभाव से जानता है। जैसे - दीपक पदार्थ को प्रकाशित करता है, उसे अपने को प्रकाशित करने में भी किसी अन्य की अपेक्षा नहीं होती है। भावार्थ:-पिछले श्लोक में यह बतलाया है कि केवलज्ञान दूरवर्ती पदार्थों को भी जानता है, चाहे वह दूरी क्षेत्र सम्बन्धी हो या काल-सम्बन्धी। यहाँ यह प्रश्न पैदा होता है कि ज्ञान पर को ही स्वभाव से जानता है या अपने को भी जानता है ? इस श्लोक में दीपक के उदाहरण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि जिसप्रकार दीपक पर पदार्थों [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/30]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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