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________________ जीव अधिकार तिरस्कार कर उसे सब ओर से अपनी प्रभा द्वारा नीला बना लेता है। उसीप्रकार ज्ञेयों के मध्य में स्थित हुआ केवलज्ञान भी अपने तेज से अज्ञान अन्धकार को दूर कर समस्त ज्ञेयों में ज्ञेयाकार रूप से व्याप्त हुआ उन्हें प्रकाशित करता है अर्थात् उन्हें जानता है। दूध से भरे जिस बड़े पात्र में इन्द्रनील रत्न पड़ा होता है, उसके थोड़े से ही देश में यद्यपि वह स्थित होता है और उसका कोई भी परमाणु उससे निकलकर अन्यत्र नहीं जाता; फिर भी उसकी प्रभा में ऐसी विशेषता है कि वह सारे दूध को अपने रंग में रंग लेता है, परन्तु दूध का कोई भी परमाणु वस्ततः नीला नहीं हो पाता। नीलमणि को यदि दध से निकाल लिया जाये तो दध ज्यों का त्यों अपने स्वाभाविक रंग में स्थित नजर आता है, नीलरत्न की प्रभा के संसर्ग से कहीं भी उसमें कोई विकार लक्षित नहीं होता। ऐसी ही अवस्था ज्ञान तथा ज्ञेयों की है, ज्ञेयों के मध्य में स्थित हुआ केवलज्ञान यद्यपि वस्तुतः अपने आत्मप्रदेशों में ही स्थित होता है और आत्मा का कोई भी प्रदेश आत्मा से अलग होकर बाह्य पदार्थों में नहीं जाता; फिर भी उस केवलज्ञान के तेज का ऐसा माहात्म्य है कि वह सारे पदार्थों को अपनी प्रभासे ज्ञेयाकार रूप में व्याप्त कर उन पदार्थों में अपने प्रदेशों के साथ तादात्म्य को प्राप्त जैसा प्रतिभासित होता है। अत: व्यवहार नय की दष्टि से ज्ञान का ज्ञेयों में और ज्ञेयों (पदार्थों) का ज्ञान में अस्तित्व कहा जाता है।। प्रवचनसार गाथा ३० एवं पंचास्तिकाय संग्रह गाथा ३३ में भी इसीप्रकार का भाव आया है। ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञान ज्ञेयरूप नहीं होता - चक्षुर्गृह्णद्यथा रूपं रूपरूपं न जायते । ज्ञानं जानत्तथा ज्ञेयं ज्ञेयरूपं न जायते ।।२२।। अन्वय :- यथा चक्षुः रूपं गृह्णत् रूपरूपं न जायते तथा ज्ञेयं जानत् ज्ञानं ज्ञेयरूपं न जायते । सरलार्थ :- जिसप्रकार आँख रंग-रूप को ग्रहण करती/जानती हुई रंग-रूपमय नहीं हो जाती, उसीप्रकार ज्ञान ज्ञेय को जानता हुआ ज्ञेयरूप नहीं होता; परन्तु ज्ञानरूप ही रहता है। भावार्थ :- जब मनुष्य आँख से अग्नि को देखता है, तब आँख अग्नि को देखने-जानने से न गरम होती है न लाल होती है। आँख से मलीन वस्तु देखने से आँख मलीन नहीं होती। किसी भी अच्छी-बुरी वस्तु को देखने-जानने पर भी आँख तो मात्र आँख ही रहती है; जिसे देखती है, उस पदार्थरूप बिल्कुल परिणमित नहीं होती। उसीप्रकार ज्ञान अनेकप्रकार के ज्ञेयों को जानता है; तथापि ज्ञान ज्ञानरूप ही रहता है ज्ञेयरूप नहीं हो जाता। यदि जाननेमात्र से ज्ञान ज्ञेयरूप होता रहे तो केवली भगवान केवलज्ञान से सर्व पदार्थों को युगपत् स्पष्ट जानते ही उन ज्ञेयरूप परिणमित हो जाते तो सबसे अधिक दुःखी हो जाते; लेकिन ऐसा नहीं है। अल्पज्ञान हो अथवा पूर्ण ज्ञान हो, वह ज्ञेयों को जानते हुए ज्ञेयों से पूर्ण अप्रभावित रहता है; यह इस श्लोक में स्पष्ट किया है। प्रवचनसार गाथा २८ तथा उसकी टीका भी [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/29]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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