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________________ २८ योगसार-प्राभृत लक्ष्य-लक्षणभावोऽस्ति तदानीं कथमेतयोः ।।२०।। अन्वय :- यदि आत्मनः ज्ञानं वा ज्ञेयं अपि अधिकं प्रजायते तदानीं एतयोः लक्ष्यलक्षण-भावः कथ अस्ति? (अर्थात् न भवति)। सरलार्थ :- यदि आत्मा से ज्ञान अथवा ज्ञेय भी अधिक होता है तो आत्मा और ज्ञान में लक्ष्य-लक्षणभाव कैसे बन सकता है ? भावार्थ :- इस श्लोक में आत्मा लक्ष्य है और ज्ञान लक्षण है। यदि लक्ष्यरूप आत्मा से लक्षणरूप ज्ञान का आकार बड़ा माना जायेगा तो लक्षण में अतिव्याप्ति दोष उत्पन्न होगा क्योंकि लक्षण लक्ष्य से बाहर गया। अत: आत्मा से ज्ञान को अधिक नहीं मानना चाहिए। जितने आकार का लक्ष्य है उतने ही आकार में रहनेवाला लक्षण ही निर्दोष लक्षण होता है। यदि आत्मा को बड़े आकारवाला/अधिक विस्तारवाला/क्षेत्रवाला माना जाय और ज्ञान को कम आकार/कम क्षेत्रवाला अर्थात् पूरे आत्मा में न माना जाये तो यह लक्षण अव्याप्तिदोष से दूषित हो जायेगा; क्योंकि लक्षण लक्ष्य के एकदेश में पाया जा रहा है। ____ यदि आत्मा को स्पर्शादिवाला, गतिहेतुत्वरूप अथवा स्थितिहेतुत्ववाला माना जाय तो लक्षण असंभवदोष से दूषित होगा; क्योंकि लक्षण लक्ष्य में पाया ही नहीं जा रहा है, अत: आत्मा को मात्र ज्ञानलक्षणवाला ही मानना चाहिए और ज्ञानलक्षण को भी आत्मा जितने आकारवाला ही मानना चाहिए, हीनाधिक नहीं। इसीप्रकार ज्ञेय को भी आत्मा से अधिक मानने पर दोष संभव है। ज्ञान ज्ञेय प्रमाण होता है और ज्ञेय अधिक मानने पर ज्ञान को भी आत्मा से अधिक मानना पड़ेगा, इससे अतिव्याप्ति दोष आयेगा। अतः आत्मा से ज्ञान अथवा ज्ञेय कोई भी अधिक नहीं है - यह सिद्ध होता है। इस विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए प्रवचनसार गाथा २४ एवं २५ को टीका सहित देखें। ज्ञेयक्षिप्त ज्ञान की व्यापकता - क्षीरक्षिप्तं यथा क्षीरमिन्द्रनीलं स्वतेजसा। ज्ञेयक्षिप्तं तथा ज्ञानं ज्ञेयं व्याप्नोति सर्वतः ।।२१।। अन्वय :- यथा क्षीरक्षिप्तं इन्द्रनीलं सर्वतः स्वतेजसा क्षीरं व्याप्नोति तथा ज्ञेयक्षिप्तं ज्ञानं ज्ञेयं(सर्वतः व्याप्नोति)। सरलार्थ :- जैसे दूध में पड़ा हुआ इन्द्रनीलमणि अपने तेज/प्रभा से दूध में सब ओर से व्याप्त हो जाता है; उसीप्रकार ज्ञेय के मध्यस्थित ज्ञान अपने ज्ञानरूपी प्रकाश से ज्ञेय समूह को पूर्णत: व्याप्त कर ज्ञेयों को प्रकाशित करता है। भावार्थ :- यहाँ इन्द्रनील पद उस सातिशय महानील रत्न का वाचक है, जो बड़ा तेजस्वी होता है। उसे जब किसी दूध से भरे बड़े बर्तन में डाला जाता है तो वह दूध के वर्तमान रूप का [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/28]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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