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________________ जीव अधिकार (भवति); ततः ज्ञानं सर्वगतम् (अस्ति)। सरलार्थ :- जिनेन्द्रदेव ने आत्मा को ज्ञानप्रमाण/ज्ञान जितने आकारवाला और ज्ञान को ज्ञेयप्रमाण अर्थात् ज्ञेयों के आकारवाला जाना है; चूँकि ज्ञेय लोकालोकरूप है, अत: ज्ञान सर्वगत है। भावार्थ :- आत्मा अर्थात् जीव एक द्रव्य है। उसमें अनादिकाल से ज्ञानादि अनंत विशेष गुण हैं और अस्तित्वादि अनंत सामान्य गुण भी हैं। जो द्रव्य के सम्पूर्ण भागों में और उसकी सम्पूर्ण अवस्थाओं में रहते हैं, उन्हें गुण कहते हैं। इस परिभाषा के अनुसार द्रव्य का जितना आकार है, उतने आकार में सब गुण फैले हुए हैं और जितने आकार में गुण फैले हुए हैं, उतने ही आकार का द्रव्य है, यह स्पष्ट होता है। ___ इस श्लोक में आत्मा/जीवद्रव्य को ज्ञानप्रमाण कहा है । जितना ज्ञान है, उतना आत्मा है । ज्ञान से आत्मा का आकार/विस्तार बड़ा हो तो आत्मा का कुछ अंश ज्ञान से रहित होगा और वह अंश ज्ञानरहित होने से अचेतनता को प्राप्त हो जायेगा। आत्मा के बाहर भी ज्ञान गुण का विस्तार मान लिया जाय तो द्रव्य के बिना गुण किसमें - किसके आधार से रहेंगे ? आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में गुणों की परिभाषा बताते समय लिखा है, 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणा:' अर्थात् जो सदा द्रव्य में रहनेवाले हैं और स्वयं अन्य गुण से रहित हैं, वे गुण हैं, इस सूत्र के साथ विरोध आ जायेगा । इसलिए जितना ज्ञान गुण उतना आत्मा और जितना आत्मा उतना ही ज्ञान गुण मानना चाहिए। ज्ञान को केवलज्ञान की अपेक्षा से ही ज्ञेयप्रमाण कहा है; क्योंकि केवलज्ञान में ही सर्व ज्ञेय अर्थात् त्रिकाल सहित त्रिलोकवर्ती पदार्थ ज्ञात होते हैं, अन्य ज्ञान में नहीं। प्रमेयत्वगुण की परिभाषा के अनुसार भी प्रत्येक वस्तु अपने स्वभाव से ही ज्ञेय होने के कारण वस्तु किसी न किसी ज्ञान से जानी ही जायेगी। अत: ज्ञान सर्वगत सिद्ध होता है। यहाँ ज्ञान सर्वगत है और उस अपेक्षा आत्मा भी सर्वगत है - ऐसा कथन उपचरित ही समझना चाहिए; क्योंकि न आत्मा के प्रदेश सीधे अलोकाकाश में जाते हैं और न अलोकाकाश आत्मा के प्रदेशों में आता है; तथापि अलोकाकाश जानने में अवश्य आता है। सिद्ध अथवा अरहंत भगवान के प्रदेश भी लोक में सदैव कहाँ फैलते हैं ? मात्र केवली समुद्घात के समय आत्मा के प्रदेश पूर्ण लोक में फैल जाते हैं, इसका अर्थ यह हुआ कि आत्मा अपने-अपने शरीर के आकार में ही रहते हुए भी ज्ञान की अपेक्षा सर्वगत है, आत्मप्रदेशों की अपेक्षा से वस्तुतः सर्वगत नहीं है । इस विषय की विशेष जानकारी हेतु प्रवचनसार गाथा २३ एवं २६ तथा दोनों की टीका भी अवश्य देखें। आत्मा से ज्ञान को अधिक मानने पर आपत्ति - यद्यात्मनोऽधिकं ज्ञानं ज्ञेयं वापि प्रजायते। [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/27]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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