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क्षायिकं साध्यं (भवति), परं द्वितयं साधनं ( वर्तते ) ।
सरलार्थ :- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति ये तीन दर्शनमोहनीय और संयोजन चतुष्टय अर्थात् अनंतानुबंधी क्रोध - मान-माया - लोभ ये चार चारित्रमोहनीय - इसप्रकार कुल मिलाकर मोहनीयकर्म की सात प्रकृतियाँ क्षय को, उपशम को और क्षयोपशम को प्राप्त होने पर क्रमश: क्षायिक, औपशमिक और क्षायोपशमिक इस तरह तीन प्रकार का सम्यक्त्व होता है। उन तीनों सम्यक्त्वों में क्षायिक सम्यक्त्व साध्य है और शेष दो औपशमिक सम्यक्त्व और क्षायोपशमिक सम्यक्त्व साधन है। भावार्थ :जीव के परिणामों की विशुद्धि के निमित्त से कर्मों की शक्ति का प्रगट न होना उपशम है । कर्म के उपशम के निमित्त से होनेवाले जीव के भावों को औपशमिक भाव कहते हैं। वर्तमानकालीन सर्वघाति स्पर्शकों का उदयाभावी क्षय, भविष्यकालीन उन्हीं स्पर्धकों का सदवस्थारूप उपशम और वर्तमानकालीन देशघाति स्पर्धकों का उदय इन तीनरूप कर्म की अवस्था को क्षयोपशम कहते हैं । कर्म के क्षयोपशम के निमित्त से होनेवाले जीव के भावों को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं ।
कर्मों के आत्मा से सर्वथा पृथक् होने को क्षय कहते हैं । कर्मों के कर्मरूप से नाश अर्थात् अकर्मदशा होने को क्षय कहते हैं । कर्मों के क्षय के निमित्त से होनेवाले जीव के भावों को क्षायिकभाव कहते हैं ।
योगसार प्राभृत
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प्रश्न - अनंतानुबंधी कषाय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर - अनंत अर्थात् संसार या मिथ्यात्व परिणाम, मिथ्यात्व परिणाम के साथ-साथ बंधनेवाले कषाय कर्म को अनंतानुबंधी कषायकर्म कहते हैं।
सम्यक्त्व-प्राप्ति में एक सुनिश्चित क्रम सर्वज्ञ भगवान ने बताया है, उसे जानने पर उनका परस्पर कारण-कार्य संबंध भी स्पष्ट हो जाता है। अनादि मिथ्यादृष्टि को सबसे पहले एक मात्र औपशमिक सम्यक्त्व की ही प्राप्ति होती है । क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्वपूर्वक ही प्रगट होता है । अतः इन दोनों सम्यक्त्वों को क्षायिक सम्यक्त्व के पूर्व होने के कारण यहाँ इन्हें साधन बतलाया है ।
आत्मा का ज्ञानप्रमाणपना और ज्ञान का सर्वगतत्व
वस्तुतः तो क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ही क्षायिक सम्यक्त्व का कारण है, तथापि कारण का कारण जो औपशमिक सम्यक्त्व, उसे भी आचार्य ने क्षायिक सम्यक्त्व का कारण अर्थात् साधन बताया है, जो योग्य ही है।
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ज्ञानप्रमाणमात्मानं ज्ञानं ज्ञेयप्रमं विदुः ।
लोकालोकं यतो ज्ञेयं ज्ञानं सर्वगतं ततः।।१९।।
अन्वय :- आत्मानं ज्ञानप्रमाणं विदुः । ज्ञानं ज्ञेयप्रमं (विदुः) । यत: ज्ञेयं (सर्वं) लोकालोकं