________________
मोक्ष अधिकार
२१९
अन्वय :- अध्यात्म-चिन्तनात् अन्यः सदुपाय: तु न विद्यते (तथा) मोहव्यालकदर्थितैः जीवैः सः (सदुपाय:) परं दुरापः (विद्यते)। ___ सरलार्थ :- अध्यात्म-चिंतन अर्थात् निज शुद्धात्म ध्यान से भिन्न दूसरा कोई परमात्मरूप साध्य का साधन नहीं है। विशेष बात यह है कि जो जीव मोहरूपी सर्प से डसे हए हैं अथवा मोहरूपी हाथी से पीड़ित हैं, उनके लिये शुद्धात्मा का ध्यानरूपी सदुपाय अर्थात् उत्तम उपाय अत्यंत दुर्लभ है।
भावार्थ :- शुद्धात्मा का ध्यानरूपी कार्य विशिष्ट कषायों के अभाव में और शेष कषायों के मंद उदय में होता है। जहाँ मोह परिणाम की तीव्रता रहेगी वहाँ सामान्य पुण्यरूप परिणाम भी नहीं होने से वहाँ कषायों के अभाव में और कषायों के मंदोदय में होनेवाला शुद्धात्मा का ध्यानरूप कार्य कैसे होगा? हो ही नहीं सकता। आत्मध्यान की बाह्य सामग्री -
उत्साहो निश्चयो धैर्य संतोषस्तत्त्वदर्शनम् ।
जनपदात्ययः षोढा सामग्रीयं बहिर्भवा ।।३४३।। अन्वय :- उत्साहः, निश्चयः, धैर्य, सन्तोषः, तत्त्वदर्शनं, (च) जनपदात्यय: इयं षोढा बहिर्भवा सामग्री (अस्ति)।
सरलार्थ :- अध्यात्मचिंतन अर्थात् निज शुद्धात्मध्यान के लिये उत्साह, निश्चय अर्थात् स्थिर विचार, धैर्य, संतोष, तत्त्वदर्शन, जनपद-त्याग अर्थात् सामान्यजनों से संपर्क का त्याग यह छह प्रकार की बाह्य सामग्री है।
भावार्थ :- जिस ध्यान का पिछले श्लोक में उल्लेख है, उसकी सिद्धि के लिये यहाँ बाह्य सामग्री के रूप में छह बातें कही हैं, इनमें उत्साह को प्रथम स्थान दिया है। यदि उत्साह नहीं हो तो किसी भी कार्य की सिद्धि के लिये प्रवृत्ति ही नहीं होती।
यदि ध्येय का निश्चय ही नहीं तो सब कुछ व्यर्थ है।
यदि धैर्य नहीं हो तो साधना में विघ्न-कष्टादि के उपस्थित होने पर स्खलित हो जाना स्वाभाविक है, इसी से नीतिकारों ने 'धैर्यं सर्वार्थ-साधनं' - धैर्य को सर्व प्रयोजनों का साधन बतलाया है।
विषयों में लालसा के अभाव का नाम सन्तोष है, यह सन्तोष भी साधना की प्रगति में सहायक होता है, यदि सदा असन्तोष बना रहता है तो वह एक बड़ी व्याधि का रूप ले लेता है, इसी से 'असंतोषो महाव्याधिः' - जैसे वाक्यों के द्वारा असन्तोष को महाव्याधि माना गया है।
जीवादि तत्त्वों का यदि भले प्रकार दर्शन, स्वरूपानुभवन न हो तो फिर उत्साह, निश्चय, धैर्य तथा सन्तोष से भी क्या हो सकता है ? और ध्यान में प्रवृत्ति भी कैसे हो सकती है? नहीं हो सकती। अतः 'तत्त्वदर्शन' का होना परमावश्यक है, इसी से इस ग्रन्थ में तत्त्वों का आवश्यक निरूपण किया गया है।
अन्त की छठी सामग्री है जनपदत्याग', जबतक जनपद और जनसम्पर्क का त्याग नहीं किया
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/219]