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मुक्त्वा वाद-प्रवादाद्यमध्यात्मं चिन्त्यतां
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नाविधूते तमः स्तोमे ज्ञेये ज्ञानं प्रवर्तते । । ३४०।।
अन्वय : - तत: वाद-प्रवादाद्यं मुक्त्वा अध्यात्मं चिन्त्यतां तमः स्तोमे अविधूते ज्ञानं ज्ञेये न
प्रवर्तते ।
सरलार्थ :- इसलिए वाद-विवाद, चर्चा वार्ता, समझना - समझाना, सुनना-सुनाना, उपदेश आदि परिणामों को छोड़कर अर्थात् उपेक्षा करके आत्मा के परम स्वरूप का चिंतन करना चाहिए । धर्म-ज्ञानसंबंधी वाद-विवाद आदि पुण्यरूप परिणाम अंधकार-समूहरूप है, उसके नाश के बिना अपना प्रगट ज्ञान शुद्धात्मस्वरूप ज्ञेय में प्रवृत्त नहीं होता ।
भावार्थ :- इसी मोक्षाधिकार के ही श्लोक ३१ से ३३ पर्यंत में वाद-विवाद करने का निषेध किया है । इस श्लोक में पुनः उसी विषय को कुछ विशेषताके साथ ग्रंथकार कह रहे हैं ।
हमें प्राप्त क्षायोपशमिक ज्ञान अपूर्ण तो है ही और वह प्रगट ज्ञान कहीं अन्य स्थान में संलग्न हो गया तो उस ज्ञान से हम आत्म-ज्ञान का काम नहीं ले सकते। अतः ग्रंथकार हमें वाद-विवादादि पुण्य-परिणामों से हटाकर एक मात्र आत्मा में लगाना चाहते हैं ।
यहाँ वाद-विवादादि परिणामों को अंधकारमय इसलिए कहा है, क्योंकि ये परिणाम पुण्यरूप होनेपर भी वे स्वयं ज्ञानमय न होने से ज्ञाता का कार्य करने में समर्थ नहीं हैं । इसलिए उन्हें छोड़ने अर्थात् उपेक्षा करके शुद्धात्म स्वभाव के चिंतन और ध्यान करने की मुख्यता रखने की ग्रंथकार प्रेरणा दे रहे हैं ।
समीचीन साधनों में आदर आवश्यक
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योगसार प्राभृत
उपेयस्य यतः प्राप्तिर्जायते सदुपायतः ।
सदुपाये ततः प्राज्ञैर्विधातव्यो महादरः । । ३४१ ।।
अन्वय :- यत: उपेयस्य (मोक्षस्य ) प्राप्तिः सदुपायतः जायते । तत: प्राज्ञैः सदुपाये महाआदर: विधातव्यः ।
सरलार्थ :- क्योंकि उपेय अर्थात् मोक्षरूप साध्य की सिद्धि समीचीन साधनों से होती है; इसलिए विद्वानों को समीचीन साधनों अर्थात् सम्यक् उपाय करने में अतिशय आदर रखना चाहिए ।
भावार्थ :- इस श्लोक में परमात्म पद को साध्य कहा है। जिसे साध्य आवश्यक है उसे साधन भी आवश्यक प्रतीत होता है; क्योंकि साधन साध्य की प्राप्ति का नियम है। इसलिए आचार्य महाराज साधन में बहुमान रखने के लिये अपने शिष्यों को उपदेश / प्रेरणा दे रहे हैं । आत्मचिंतन ही साधन -
नाध्यात्म-चिन्तनादन्यः सदुपायस्तु विद्यते । दुरापः स परं जीवैर्मोहव्यालकदर्थितैः ।। ३४२ ।।
[C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/218]