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योगसार-प्राभृत
जाता तबतक साधना की पूर्णता नहीं हो सकती। जनसम्पर्क से वाक्प्रवृत्ति होती है, वाक्प्रवृत्ति से मन चंचल होता है और मन की चंचलता से चित्त में अनेक प्रकार के विकल्प तथा क्षोभ होते हैं, जो सब ध्यान में बाधक हैं। इसी से श्री पूज्यपादाचार्य ने समाधितंत्र के श्लोक ७२ में योगी को जनसम्पर्क त्यागने की मुख्य प्रेरणा दी है -
जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्तविभ्रमाः।
भवन्ति तस्मात्संसर्गं जनैर्योगी ततस्त्यजेत्।। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तो प्रवचनसार में यहाँ तक लिखा है कि जो लौकिकजनों का संसर्ग नहीं छोड़ता है वह निश्चित सूत्रार्थपद (आगम का ज्ञाता), शमितकषाय और तप में बढ़ा-चढ़ा होते हुए भी संयत-मुनि नहीं रहता । संसर्ग के दोष से अग्नि के संसर्ग को प्राप्त जल की तरह अवश्य ही विकार को प्राप्त हो जाता है। अतः ध्यानसिद्धि के लिये नगरों का वास छोड़कर प्रायः पर्वतादि निर्जन स्थानों में रहने की आवश्यकता है। आत्मध्यान की अंतरंग सामग्री -
आगमनानुमानेन ध्यानाभ्यास-रसेन च।
त्रेधा विशोधयन् बुद्धिं ध्यानमाप्नोति पावनम् ।।३४४।। अन्वय :- आगमेन अनमानेन ध्यानाभ्यास-रसेन च त्रेधा (स्व) बुद्धिं विशोधयन् (ध्यातासाधकः) पावनं ध्यानं आप्नोति।
सरलार्थ :- आगम से, अनुमान ज्ञान से और ध्यानाभ्यासरूप रस से - इन तीन प्रकार की पद्धति से अपनी बुद्धि को विशुद्ध करनेवाला ध्याता/साधक, पवित्र आत्मध्यान को प्राप्त होता है।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में ध्यान की बाह्य सामग्री का उल्लेख करके यहाँ अन्तरंग सामग्री के रूप में बुद्धि की शुद्धि को पावन ध्यान का कारण बतलाया है। और उस बुद्धिशुद्धि के लिये तीन उपायों का निर्देश किया है, जो कि आगम, अनुमान तथा ध्यानाभ्यास रस के रूप में हैं। ___ आगमजन्य श्रुतज्ञान के द्वारा जीवादि तत्त्वों का स्वरूप जानना ‘आगमोपाय' है और आगम से जाने हुए पदार्थ का अनुमान प्रमाण से निर्णय करना अनुमानोपाय' है और ध्यान का अभ्यास करते हुए उसमें जो एक प्रकार की रुचिवृद्धि के रूप में रस-आनन्द उत्पन्न होता है उसे ध्यानाभ्यास रस' कहते हैं । इन तीनों उपायों के द्वारा बुद्धि का जो संशोधन होता है, उससे वह शुद्ध आत्मध्यान बनता है, जिसमें विविक्त आत्मा का साक्षात् दर्शन होता है। ___ श्री पूज्यपादाचार्य ने इन्हीं उपायों से बुद्धि का संशोधन करते हुए विविक्त आत्मा का साक्षात् निरीक्षण किया था और तभी केवलज्ञान के अभिलाषियों के लिये उन्होंने समाधितन्त्र में विविक्त आत्मा के कथन की प्रतिज्ञा का यह श्लोक लिखा है -
श्रुतेन लिङ्गेन यथात्मशक्ति समाहितान्तःकरणेन सम्यक् । समीक्ष्य कैवल्य-सुख-स्पृहाणां विविक्तमात्मानमथाभिधास्ये ।।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/220]