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योगसार-प्राभृत
तांबा, चांदी से रहित होता है तब सुवर्ण को शुद्ध कहते हैं। पहले बताई गयी शुद्धता स्वाभाविक है, बाद में कही गई शुद्धता पर्यायगत शुद्धता है, ऐसा समझना चाहिए।
इसीप्रकार व्यवहारीजन एक ही जीव के संबंध में समझते हैं। इसका खुलासा अगले श्लोक तथा उसके भावार्थ में किया है। जीव के भेदों का लक्षण -
संसारी कर्मणा युक्तो मुक्तस्तेन विवर्जितः।
अशुद्धस्तत्र संसारी मुक्तः शुद्धोऽपुनर्भवः ।।३२८।। अन्वय :- कर्मणा युक्तः (जीव:) संसारी, तेन विवर्जित: मुक्तः (अस्ति)। तत्र संसारी अशुद्धः (च) मुक्तः शुद्धः अपुनर्भवः ।
सरलार्थ :- जो जीव ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से सहित हैं, उन्हें संसारी जीव कहते हैं और जो जीव ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित हैं, उन्हें मुक्त जीव कहते हैं । इन दोनों में जो संसारी हैं, वे अशुद्ध जीव हैं और जो मुक्त हैं, उन्हें शुद्ध कहते हैं, जिनका नाम अपुनर्भव भी है।
भावार्थ :- अनादि-अनंत स्वभाव की अपेक्षा से देखा जाय तो जीवतत्त्व शुद्ध ही है, किसी भी विकारी परिणामों का प्रवेश आजतक शुद्ध जीवतत्त्व में हुआ ही नहीं, भविष्य में भी कभी होगा नहीं और वर्तमान काल में भी सर्व विभाव भावों से रहित ही है। पर्यायगत शुद्धपर्यायों से भी जीवतत्त्वगत शुद्धता अप्रभावित है। इसी विषय को समयसार की छठी गाथा में प्रमत्त और अप्रमत्तभावों से रहित जीव ज्ञायकस्वभावी – ऐसा कहा है।
इसी जीवतत्त्व को पर्याय की मुख्यता से शुद्ध और अशुद्ध जीव कहा है। ज्ञानावरणादि आठों कर्मों से रहित जीव को शुद्धजीव कहा है। पहले जीव के शुद्धता संबंधी जो कथन किया है, वह द्रव्यगत अनादि-अनंत स्वाभाविक शद्धता की बात कही है, जिसे जीवतत्त्व कहते हैं। और आठों कर्मों से रहित जीव को जो शुद्ध कहा गया है, वह पर्यायगत शुद्धता की बात है। दोनों में जो भेद है, उसे बराबर समझना चाहिए।
जीवतत्त्वगत शुद्धता का ध्यान करने के बाद पर्यायगत शुद्धता प्राप्त होती है, जिसे मुक्त अवस्था कहते हैं । अभव्य जीव भी स्वभाव से शुद्ध ही है; लेकिन पर्याय में वह कभी सिद्ध-समान शुद्ध नहीं हो पायेगा। सिद्ध अवस्था प्राप्त होने के बाद भी सिद्ध जीव स्वभाव से तो शुद्ध रहते ही हैं। किसी भी जीव की स्वभावगत शुद्धता का नाश होता नहीं। निगोद अवस्था में भी यह स्वभावरूप शुद्धता बराबर बनी रहती है। नियमसार की ४७वीं गाथा में शुद्ध स्वभाव को निम्नप्रकार व्यक्त किया है -
जारिसिया सिद्धप्पा भवमल्लिय जीव तारिसा होति। जरमरणजम्ममुक्का
अट्ठगुणालंकिया जेण|| अट्ठगुणालाकया ज
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