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मोक्ष अधिकार
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गाथार्थ:- जैसे सिद्ध आत्मा हैं वैसे भवलीन जीव हैं, जिससे वे जन्म-जरा-मरण से रहित और आठ गुणों से अलंकृत हैं। शुद्ध जीव को अपुनर्भव कहने का कारण -
भवं वदन्ति संयोगं यतोऽत्रात्म-तदन्ययोः ।
वियोगं तु भवाभावमापुनर्भविकं ततः ।।३२९।। अन्वय :- यतः अत्र आत्म-तदन्ययोः (आत्म-पुदगलकर्मयोः) संयोगं भवं वदन्ति. वियोगं तु भव-अभावं; ततः (मुक्तजीव:) आपनर्भविकं ।।
सरलार्थ :- क्योंकि आत्मा तथा आत्मा से भिन्न पुद्गलमय आठों कर्मों के संयोग को भव कहते हैं और आत्मा तथा आत्मा से भिन्न पुद्गलमय आठों कर्मों के वियोग को भवाभाव अर्थात् भव का अभाव/मुक्ति कहते हैं। जीव का पुनः संसार में एकेन्द्रियादि जीवरूप से उत्पन्न न होना अर्थात् जन्म न लेने का नाम भवाभाव है। इसलिए मुक्त/शुद्ध जीव को आपुनर्भविक अर्थात् अपुनर्भववाला कहते हैं।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में मुक्त जीव को अपुनर्भव नाम दिया है, इस श्लोक में उसी का युक्तिपूर्वक स्पष्टीकरण किया है। मुक्त जीव का स्वरूप -
निरस्तापर-संयोगः स्व-स्वभाव-व्यवस्थितः। सर्वोत्सुक्यविनिर्मुक्तः स्तिमितोदधि-सन्निभः।।३३०।। एकान्त-क्षीण-संक्लेशो निष्ठितार्थो निरञ्जनः।
निराबाधः सदानन्दो मुक्तावात्मावतिष्ठते ।।३३१।। अन्वय :- मुक्तौ आत्मा निरस्त-अपर-संयोगः, स्व-स्वभाव-व्यवस्थितः, स्तिमितउदधि-सन्निभः, सर्वोत्सुक्य-विनिर्मुक्तः, एकान्त-क्षीण-संक्लेशः, निष्ठितार्थः, निरञ्जनः, निराबाधः सदानन्दः (च) अवतिष्ठते।
सरलार्थ :- मुक्त अवस्था में अर्थात् सिद्धालय में आत्मा परसंयोग से रहित, स्व-स्वभाव में अवस्थित, निस्तरंग समुद्र के समान, सर्व प्रकार की उत्सुकता से मुक्त, सर्वथा क्लेश वर्जित, कृतकृत्य, निष्कलंक, निराबाध और सदा आनंदरूप तिष्ठता है। ____भावार्थ :- मुक्तावस्था को प्राप्त हुआ जीव सिद्धालय में किस रूप में रहता है, उसका इन दोनों श्लोकों में सुन्दर स्पष्टीकरण किया है। मुक्तात्मा समस्त पर संबंधों से रहित हुए अपने ज्ञान-दर्शन स्वभाव में पूर्णतः अवस्थित होते हैं, यह कथन परद्रव्यों के अभाव के साथ स्वभाव में अवस्थित रहने का निमित्त-नैमित्तिक संबंध का ज्ञान कराता है। मुक्त जीव निस्तरंग समुद्र के समान समस्त रागादि विकल्पों से शन्य रहते हैं। इसलिए वीतरागमय बन गये हैं। किसी भी प्रकार का दःख/क्लेश कभी उनके पास नहीं फटकता, क्योंकि वे अनंत सुखी हो गये हैं। उनका कोई भी प्रयोजन सिद्ध होने के लिये शेष नहीं
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