________________
मोक्ष अधिकार
२११
समयसार के उक्त अंश को मात्र एक ही श्लोक में देने का यहाँ प्रयत्न किया है। यथार्थ उपाय करने से मुक्ति -
विभेदं लक्षणैर्बुद्ध्वा स द्विधा जीव-कर्मणोः ।
मुक्तकर्मात्मतत्त्वस्थो मुच्यते सदुपायवान् ।।३२६।। अन्वय :- य: जीव-कर्मणोः लक्षणैः द्विधा विभेदं बुद्ध्वा मुक्त-कर्म-आत्मतत्त्वस्थः सः सदुपायवान् मुच्यते।
सरलार्थ :- जो जीव और कर्म को अपने-अपने लक्षणों से दो प्रकार के भिन्न-भिन्न पदार्थ जानकर कर्म को छोड़ देते हैं/कर्म से उपेक्षा धारण करते हैं अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म के मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं और आत्मा में लीन रहते हैं, वे सद्/यथार्थ उपायवान कर्मों से छूटते हैं अर्थात् मुक्त हो जाते हैं।
भावार्थ :- समयसार २९२ से २९९ पर्यंत की गाथाएँ, इन गाथाओं की टीका, कलश एवं भावार्थ में मुक्ति-प्राप्ति के यथार्थ उपाय विषयक विशद विवेचन आया है, उसे जरूर देखें । इस पूरे प्रकरण को ग्रंथकार ने मात्र एक ही श्लोक में देने का सफल प्रयास किया है।
२९७ गाथा का भावार्थ भी विशेष उपयोगी है। उसका अंतिम वाक्य निम्न प्रकार है - "इसप्रकार प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को ग्रहण करना चाहिए अर्थात् अपने को चेतयिता के रूप में अनुभव करना चाहिए।" एक ही जीव, अपेक्षा से दो प्रकार का -
एको जीवो द्विधा प्रोक्तः शुद्धाशुद्ध-व्यपेक्षया।
सुवर्णमिव लोकेन व्यवहारमुपेयुषा ।।३२७।। अन्वय :- व्यवहारं उपेयुषा लोकेन सुवर्णं इव एकः जीवः शुद्धाशुद्ध-व्यपेक्षया द्विधा प्रोक्तः।
सरलार्थ :- जिसप्रकार व्यवहारीजन एक ही सुवर्ण को शुद्ध सुवर्ण और अशुद्ध सुवर्ण - इसतरह दो प्रकार का कहते हैं; उसीप्रकार व्यवहारीजन एक ही जीव को शुद्ध जीव और अशुद्ध जीव - इसतरह दो प्रकार का कहते हैं।
भावार्थ :- जिसप्रकार सुवर्ण धातु को उसके स्वभाव की अपेक्षा से देखते हैं तो सुवर्ण एक ही है, उसमें भेद कहाँ से आयेगा? स्वभाव में भेद कैसा ? और यदि स्वभाव में भी भेद मान लिया तो वह स्वभाव कैसा? स्वभाव अनादि-अनंत, एकरूप, शुद्ध एवं अकारण होता है। मात्र सुवर्ण ही नहीं जो जो मूल धातु अथवा द्रव्य रहता है, वह शुद्ध ही रहता है। __जब सुवर्ण, किट्ट-कालिमा के संयोग में होता है, तब अथवा जब वह तांबा, चांदी, आदि अन्य धातु के संयोग में आता है तब उसे अशुद्ध कहते हैं। जब किट्ट-कालिमा आदि से अथवा
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/211]