________________
२०६
योगसार-प्राभृत
भावार्थ :- इस श्लोक में प्रमेयत्व नामक सामान्यगुण के आधार से जीव को सर्वज्ञस्वभावी सिद्ध किया है। श्लोक में ज्ञेयभावतः शब्द का प्रयोग किया है। ज्ञेयभाव और प्रमेयभाव - ये दोनों शब्द एकार्थवाची हैं। प्रमेयभाव और प्रमेयत्व गुण दोनों का भी अर्थ एक ही है । प्रमेयत्वगुण, द्रव्य का सामान्यगुण है । प्रमेयत्वगुण के कारण ही जीवादि सर्व द्रव्य, उनके अनंतानंत गुण और उन गुणों की अनंतानंत पर्यायें ज्ञान की ज्ञेय बनती हैं, इसकारण से केवलज्ञान की सिद्धि होती है।
प्रमेयत्व गण के कारण ही कोई भी द्रव्य. गण अथवा पर्याय ज्ञान से छिपकर गप्त नहीं रह सकते । ज्ञान का ज्ञेय बनना पदार्थों के स्वरूप में गर्भित हैं। वे पदार्थ भले सूक्ष्म हों, अंतरित हों अथवा दूर हों, वे सब ज्ञान से जाने ही जाते हैं; यह नियम है।
ज्ञान गुण जाननरूप पर्याय से जानने का काम करता है। जो जाननरूप पर्याय हीनाधिक होती है, वह पूर्ण भी नियम से हो सकती है। इस तर्क के आधार से भी पूर्णज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की सिद्धि होती है। जिनधर्म का मूल तो सर्वज्ञता ही है । यदि सर्वज्ञता न मानी जाय तो देव-शास्त्र-गुरु के स्वरूप का अस्तित्व ही नहीं बन सकता । जैन न्यायशास्त्र बहुभाग सर्वज्ञता की सिद्धि के लिये ही समर्पित है।
प्रमेयत्व गुण के कारण ही मिथ्यादृष्टि जीव अपने ज्ञायकस्वभावी भगवान आत्मा को ज्ञान का ज्ञेय बनाकर सम्यग्दृष्टि होता है। प्रमेयत्वगुण की परिभाषा निम्नप्रकार है - जिस शक्ति के कारण द्रव्य ज्ञान का विषय/ज्ञेय होता है, उसे प्रमेयत्वगुण कहते हैं। इसका कथन देवसेन आचार्यकृत आलापपद्धति गुणाधिकार सूत्र-९, एवं गुणव्युत्पत्ति अधिकार सूत्र ९८ में आया है। जिज्ञासु उसे जरूर देखें । पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित जिनधर्म-प्रवेशिका में पृष्ठ ३४, ३६ पर भी प्रमेयत्वगुण का कथन आया है, उसे देखें। ज्ञान के कारण आत्मा सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी -
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च ततो ज्ञानस्वभावतः।
नास्य ज्ञान-स्वभावत्वमन्यथा घटते स्फुटम् ।।३१६।। अन्वय :- ततः ज्ञानस्वभावतः (एव आत्मा) सर्वज्ञः सर्वदर्शी च (अस्ति)। अन्यथा (सर्वज्ञत्व-सर्वदर्शित्व-अभावे) अस्य (आत्मनः) स्फुटं ज्ञान-स्वभावत्वं अपि न घटते।
सरलार्थ :- इस ज्ञानस्वभाव के कारण ही आत्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। यदि आत्मा को सर्वज्ञ और सर्वदर्शी नहीं माना जाय तो आत्मा का ज्ञानस्वभाव भी घटित नहीं हो सकता।
भावार्थ :- इस श्लोक में आत्मा को ज्ञान स्वभाव के कारण सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी बतला रहे
प्रश्न :- ज्ञानस्वभाव के कारण आत्मा सर्वज्ञ हो सकता है| होता है; यह विषय तो हमें समझ में आ गया, लेकिन ज्ञानस्वभाव के कारण ही आत्मा को सर्वदर्शी/केवलदर्शी कैसे माना जा सकता है?
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/206]