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मोक्ष अधिकार
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उत्तर :- आपको सर्वज्ञ मानने में यदि कोई आपत्ति नहीं है तो इस सर्वज्ञत्व की मान्यता में सर्वदर्शित्व मानना भी गर्भित हो गया; क्योंकि केवलज्ञान के साथ-साथ ही केवलदर्शन होने का नियम होने से यह स्वयमेव सिद्ध हो गया कि ज्ञानस्वभाव के कारण आत्मा केवलदर्शी अर्थात् सर्वदर्शी भी है। आगमाभ्यासी यह तो जानते ही हैं कि केवलदर्शन को छोड़कर अन्य तीनों दर्शन (चक्षु-अचक्षु और अवधिदर्शन) ज्ञान के पूर्व होते हैं और केवलदर्शन केवलज्ञान के साथ ही होता है।
इस श्लोक के द्वितीय चरण में ग्रंथकार बता रहे हैं - यदि आत्मा को सर्वज्ञ-सर्वदर्शी नहीं माना जायेगा तो आत्मा का ज्ञानस्वभाव भी घटित नहीं होगा। इस श्लोकार्ध में ग्रंथकार कार्य से कारण का ज्ञान करा रहे हैं। केवलज्ञान यह कार्य है और इस कार्य से ही आत्मा को ज्ञानस्वभावी मानना आवश्यक है। सिद्ध होने का साक्षात् साधन -
वेद्यायुर्नाम-गोत्राणि यौगपद्येन केवली।
शुक्लध्यान-कुठारेण छित्त्वा गच्छति निर्वृतिम् ।।३१७।। अन्वय :- केवली वेद्य-आयुर्नाम-गोत्राणि (कर्माणि) शुक्लध्यान-कुठारेण यौगपद्येन छित्त्वा निर्वृतिं गच्छति।
सरलार्थ :- केवलज्ञानी अरहंत परमात्मा वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र इन चारों ही अघाति कर्मों को शुक्लध्यानरूपी कुठार से एक साथ छेदकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ :- ज्ञानावरणादि आठ कर्मों में से अरहंत परमात्मा के मात्र अघाति कर्मों की सत्ता रहती है। केवलज्ञान के कारण अनंतज्ञानादि प्रगट/व्यक्त हो गये हैं; तथापि अभी सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति होना बाकी है। तेरहवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और चौदहवें गुणस्थान के अन्त में व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान होते हैं, जिनसे चौदहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में ७२ और अंतिम समय में १३ प्रकृतियों का क्षय करके अरहंत परमात्मा, सिद्ध-पद प्राप्त करते हैं; अब यही सिद्ध अवस्था अनंतकाल पर्यंत रहेगी। वीतरागी जीव को मुक्ति की प्राप्ति होती है -
कर्मैव भिद्यते नास्य शुक्ल-ध्यान-नियोगतः। नासौ विधीयते कस्य नेदं वचनमश्चितम् ।।३१८।। कर्म-व्यपगमे राग-द्वेषाद्यनुपपत्तितः।
आत्मनः संगरागाद्याः न नित्यत्वेन संगताः ।।३१९।। अन्वय :- (यदि कोऽपि) (कथयेत्) अस्य (केवलिन:) शुक्ल-ध्यान-नियोगतः कर्म एव न भिद्यते । असौ (मोक्ष: च) कस्य (अपि) न विधीयते इदं वचनं न अञ्चितम् ।
(यतो हि) आत्मनः संगरागाद्याः नित्यत्वेन न संगताः (सन्ति), कर्म-व्यपगमे राग-द्वेषादि
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