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मोक्ष अधिकार
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केवलज्ञान जब जानता है, तब उस दूरवर्ती पदार्थ की क्षेत्रगत दूरी जानने में बाधक नहीं हो सकती ।
भावार्थ : - इस श्लोक में ग्रंथकार केवलज्ञान की विशेषता बता रहे हैं । केवलज्ञानी जीव के निकट और दूरवर्ती क्षेत्र में स्थित सभी ज्ञेय ज्ञान के समान रीति से विषय होने से उनके जानने में क्षेत्रगत दूरी को बाधा के लिये कोई स्थान नहीं रहता; यह क्षेत्रगत दूरीरूप बाधा का परिहार हुआ; जो इस श्लोक में बताया है ।
इसीतरह काल का अंतर भी जानने में बाधक नहीं होता। जैसे करोड़ों वर्षों पहले राम-रावणादि अथवा आदिनाथ तीर्थंकर आदि इस पृथ्वी पर विराजमान थे । वे काल की अपेक्षा दूर हैं। आज की वस्तु को जानना और करोडों अथवा असंख्यात, अनंत वर्षों के पहले जो वस्तु थी, उसे जानना - दोनों को जानने में स्पष्टता समान है; यह काल से दूरवर्तीपना केवलज्ञानी के लिये कुछ बाध नहीं है।
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द्रव्यगत जो सूक्ष्मता है, वह भी एक अपेक्षा से दूरपना ही है । जैसे कालाणु, परमाणु, प्रदेश सूक्ष्म को और रूपर्वत आदि स्थूल दोनों को केवलज्ञानी स्पष्ट ही जानते हैं ।
आदि
इस विषय को आचार्य समंतभद्र रचित देवागम स्तोत्र के निम्न श्लोक से अधिक स्पष्ट जान सकते हैं
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सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥५ ॥
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अर्थ परमाणु आदि सूक्ष्म, राम आदिक अन्तरित एवं मेरु आदि दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं । जो-जो अनुमान से जाने जाते हैं, वे किसी के प्रत्यक्ष भी होते हैं । जैसे दूरस्थ अग्नि का हम धूम देखकर अनुमान कर लेते हैं कि कोई उस अग्नि को प्रत्यक्ष भी तो जानता है । उसीप्रकार सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थों को हम अनुमान से जानते हैं तो कोई उन्हें प्रत्यक्ष भी जान सकता है। इसप्रकार सामान्य से सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध होती है। ज्ञेय स्वभाव के कारण आत्मा सर्वज्ञ -
सामान्यवद् विशेषाणां स्वभावो ज्ञेयभावतः ।
ज्ञायते स च वा साक्षाद् विना विज्ञायते कथम् ।। ३१५ ।।
अन्वय :- सामान्यवत् विशेषाणां स्वभावः ज्ञेयभावत: ज्ञायते सः (स्वभाव:) च साक्षात् (ज्ञानं ) विना वा कथं विज्ञायते ?
सरलार्थ: सर्व पदार्थों में ज्ञेयभाव अर्थात् प्रमेयत्वगुण होने से जिसप्रकार वस्तु के सामान्यस्वभाव को ज्ञान जानता है; उसीप्रकार वस्तु के विशेषस्वभाव को भी ज्ञान जानता ही है; केवलज्ञान के बिना सम्पूर्ण पदार्थों को विशद - स्पष्टरूप से कैसे जाना जा सकता है अर्थात् नहीं
जाना जा सकता ।
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[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/205]