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योगसार-प्राभृत
निमित्त के अभाव से नैमित्तिक कार्य -
ज्ञानी ज्ञेये भवत्यज्ञो नासति प्रति ब . ध क ।
प्रतिबन्धं विना वह्निर्न दाह्येऽदाहकः कदा ।।३१३।। अन्वय :- यथा वह्निः दाहो प्रतिबन्धं विना अदाहकः कदा (भवति) ? (तथा एव) प्रतिबन्धके न असति ज्ञानी ज्ञेये अज्ञः (कदा भवति?)कदापि न।
सरलार्थ :- जिसप्रकार अग्नि दाह्य अर्थात् सूखे इंधन के समीप उपस्थित होनेपर और प्रतिबंधक/ विरोधी निमित्तों का अभाव हो तो अग्नि जलनेयोग्य पदार्थों में अदाहक कब होती है? दाह्य पदार्थों को जलाती ही है। उसीप्रकार ज्ञेय वस्तुओं की उपस्थिति होने पर और जानने में मोहादि कोई कर्म प्रतिबंधक/विरोधी न हो तो ज्ञानी ज्ञेयों के संबंध में अनभिज्ञ नहीं रहता अर्थात् सर्व ज्ञेयों को जानता ही है।
भावार्थ :- पिछले श्लोक के समान इस श्लोक में भी ग्रंथकार निमित्त-नैमित्तिक संबंध को ही बता रहे हैं; अंतर मात्र इतना है कि पिछले श्लोक में मोहादि कर्मोदय के निमित्त से पूर्णज्ञान का अभाव कहा है और इस श्लोक में मोहादि कर्मों के अभाव के निमित्त से पूर्णज्ञान का सद्भाव बता रहे हैं।
प्रश्न :- घातिकर्मों के अभाव ने ही केवलज्ञान को उत्पन्न किया, ऐसा समझने में क्या आपत्ति है?
उत्तर :- बहुत बडी आपत्ति है। जो स्वयं मर रहे हैं वे कर्म दूसरे को जीवनदान दे सकते हैं, यह मानना अति हास्यास्पद है । पुद्गल की कर्मरूप अवस्था का नाश स्वयं हो रहा है, वह केवलज्ञानरूप जीव की अवस्था को कैसे उत्पन्न कर सकेगी? जीव के ज्ञान गुण को अर्थात् केवलज्ञानरूप पूर्ण एवं शुद्ध पर्याय को जीव ने अथवा ज्ञानगुण ने किया, यह कथन उपादानमूलक होने से यथार्थ है और इस केवलज्ञान पर्याय में मोहादि कर्मों का अभाव निमित्त है, यह निमित्त की अपेक्षा से किया गया व्यवहारनय का कथन है; ऐसा समझना शास्त्रानुकूल है। केवलज्ञान में क्षेत्रगत दूरी बाधक नहीं है -
प्रतिबन्धो न देशादि-विप्रकर्षोऽस्य युज्यते।
तथानुभव-सिद्धत्वात् सप्तहेतेरिव स्फुटम् ।।३१४।। अन्वय :- सप्तहेते: इव अस्य (केवलज्ञानिनः ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञातुं) देशादि-विप्रकर्षः प्रतिबन्धः न युज्यते (यतः) तथा स्फुटं अनुभव-सिद्धत्वात्।
सरलार्थ :- जिसप्रकार पृथ्वी और सूर्य के मध्य की दूरी में - जितने भी छोटे-बड़े जीवादि पदार्थ स्थित हैं, वे सभी सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं, तब दूरी का विषय सूर्य के प्रकाशकत्व में विरोधरूप/बाधक नहीं होता, यह अनुभवसिद्ध है; उसीप्रकार केवलज्ञानी का ज्ञान क्षेत्र की अपेक्षा से दूरवर्ती मेरु पर्वतादि, अन्तरित राम-रावणादि और सूक्ष्म परमाणु-कालाणु आदि ज्ञेय उन सबको
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