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________________ मोक्ष अधिकार २०३ सरलार्थ :- जिसप्रकार सूर्य का स्वरूप उष्णपना, वायु का स्वरूप चंचलपना और चन्द्रमा का स्वरूप शीतलपना है; उसीप्रकार आत्मा का स्वरूप ज्ञान है । भावार्थ ::- ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है, इस विषय को अनेक उदाहरण देकर इस श्लोक में बताया है। तत्त्वार्थसूत्र के दूसरे अध्याय के आठवें सूत्र में 'उपयोगो लक्षणम्' इस सूत्र द्वारा आचार्य उमास्वामी ने ज्ञान-दर्शनस्वरूप उपयोग को ही आत्मा का लक्षण बताया है। आचार्य अमृतचंद्र ने समयसार कलश ६२ में, आचार्य कुंदकुंद ने समयसार गाथा ३८ एवं ७३ में, आचार्य नेमिचंद्र ने द्रव्यसंग्रह गाथा ६ में जीव को ज्ञानमय ही बताया है । वास्तविक देखा जाय तो जीव ज्ञानमय अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा है, यह समझाने के लिये ही संपूर्ण जिनवाणी समर्पित है । निमित्त के सद्भाव से नैमित्तिक कार्य 1 चैतन्यमात्मनो रूपं तच्च ज्ञानमयं विदुः । प्रतिबन्धक-सामर्थ्यान्न स्वकार्ये प्रवर्तते । । ३१२ । । अन्वय :- आत्मनः रूपं चैतन्यं (अस्ति) तत् च ज्ञानमयं विदुः, (तत् चैतन्यं) प्रतिबन्धक सामर्थ्यात् स्वकार्ये न प्रवर्तते । सरलार्थ :- आत्मा का रूप अर्थात् स्वरूप चैतन्य है और वह चैतन्य ज्ञानमय है; तथापि मोहनीय आदि चारों प्रतिबंधक / विरोधक घाति कर्मों के सामर्थ्य से अर्थात् निमित्त से वह चैतन्य अपने केवलज्ञानादि कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता। भावार्थ ::- इस श्लोक में ग्रंथकार मोहादि घाति कर्मों का नैमित्तिक कार्य स्पष्ट कर रहे हैं। प्रश्न :- श्लोक में प्रतिबंधक / विरोधक के सामर्थ्य से ऐसा शब्द है उसका अर्थ आपने निमित्त कर दिया, यह हमें गलत लगता है; जिस शब्द का जो अर्थ है वही करना चाहिए न ? उत्तर :- • भाई ! हमने आचार्यों के अभिप्राय को स्पष्ट करने का प्रयास किया है, वह आपको गलत लगता है, तो हम क्या करें ? इसी मोक्षाधिकार के दूसरे श्लोक में मोह - विघ्नावृति-क्षये इन शब्दों से केवलज्ञान के उदय में बाधक निमित्तरूप कर्मों के क्षय की बात कही है और इस श्लोक में उन ही कर्मों के उदयरूप निमित्त की बात आचार्य समझाते हैं । हमने तो आचार्यों के कथन का भाव / अभिप्राय ग्रहण करके विषय को सुलभ बनाया है। निमित्त का ज्ञान कराते समय ग्रंथकार निमित्तों को बलवान, समर्थ, अतिसमर्थ, महा सामर्थ्यशाली इत्यादि शब्दों से व्यवहारनय द्वारा समझाते ही हैं । ग्रंथकार का प्रत्येक शब्द की विवक्षा मान्य करके यथार्थ अर्थ समझना आवश्यक है । जीव जब अपने उपादान से अर्थात् अपनी पुरुषार्थहीनता से केवलज्ञान प्रगट नहीं करेगा, तब मोहादि कर्मों का उदय रहेगा ही; इसी परिस्थिति को आचार्यों ने कर्मों का सामर्थ्य बताया है। कार्य के समय परद्रव्य की कार्यानुकूल पर्याय के अस्तित्व को निमित्त कह हैं। कर्म, जीव के कार्य में अपनी बलवत्ता से कुछ करता है, ऐसा समझना वस्तु-स्वरूप नहीं है । [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/203]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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