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योगसार- प्राभृत
भावार्थ :- पिछले तथा इस श्लोक में भी पर्वत (जो अत्यन्त कठोर होता है) के स्थानपर कर्म को रखा है और वज्र (जो इंद्र का महान सामर्थ्यशाली अस्त्र माना जाता है, जिससे अति कठोर पर्वत भी भेदा जाता है) के स्थान पर ध्यान कहा गया है। इससे पता चलता है ध्यान वज्र के समान है और वह कर्मरूपी पर्वत को भेदने में नियम से समर्थ है। ध्यान को छोड़कर कर्म-भेदन का अन्य कोई साधन नहीं है ।
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भव्य जीवों के भाग्यानुसार केवली का उपदेश
साक्षादतीन्द्रियानर्थान् दृष्ट्वा केवलचक्षुषा ।
प्रकृष्ट- पुण्य-सामर्थ्यात् प्रातिहार्यसमन्वितः ।। ३०९।। अवन्ध्य-देशनः श्रीमान् यथाभव्य - नियोगतः । महात्मा केवली कश्चिद् देशनायां प्रवर्तते ।। ३१० ।।
अन्वय :- केवलचक्षुषा अतीन्द्रियान् अर्थान् साक्षात् दृष्ट्वा प्रकृष्ट- पुण्य-सामर्थ्यात् प्रातिहार्यसमन्वितः श्रीमान् अवन्ध्य-देशनः कश्चित् केवली महात्मा यथाभव्य - नियोगतः देशनायां प्रवर्तते ।
सरलार्थ
केवलज्ञान तथा केवलदर्शरूप चक्षु से अतींद्रिय पदार्थों को साक्षात् / प्रत्यक्ष देखकर जानकर विशेष पुण्य के सामर्थ्य से अष्ट प्रातिहार्य से सहित अंतरंग तथा बहिरंग - लक्ष्मी से संपन्न - अमोघ देशना-शक्ति को प्राप्त कोई केवली महात्मा, जैसा भव्य जीवों का नियोग अर्थात् भाग्य होता है, तदनुसार देशना अर्थात् धर्मोपदेश देने में प्रवृत्त होते हैं ।
भावार्थ :- तेरहवें गुणस्थानवर्ती अरहंत भगवान के स्वरूप का कथन इस श्लोक में किया है। अष्ट प्रातिहार्य का निम्न प्रकार आगम में उल्लेख है - १. अशोक वृक्ष, २. पुष्पवृष्टि, ३. दिव्यध्वनि, ४. चंवर, ५. छत्र, ६. सिंहासन, ७. भामण्डल, ८. दुंदुभि । इनका स्वरूप तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में विस्तार से प्राप्त होता है ।
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अवंध्य अर्थात् अमोघ । देशना को अमोघ बताकर ग्रंथकार उनके उपदेश को सफल ही बताना चाहते हैं अर्थात् उनके उपदेश से अनेक जीवों को मोक्षमार्ग की नियम से प्राप्ति होती है; ऐसा
समझना ।
यहाँ 'कश्चिद्' शब्द आया है - उसका भाव यह है कि जो-जो केवली बन गये वे सब उपदेश देते हैं, ऐसा नियम नहीं है। जो मूककेवली, अंतःकृत केवली होते हैं, उनका उपदेश नहीं होता । आत्मा का स्वरूप ज्ञान है -
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विभावसोरिवोष्णत्वं चरिष्णोरिव चापलम् ।
शशाङ्कस्येव शीतत्वं स्वरूपं ज्ञानमात्मनः ।। ३११ ।।
अन्वय :- विभावसोः उष्णत्वं इव, चरिष्णोः चापलं इव शशाङ्कस्य (च) शीतत्त्वं इव ज्ञानं आत्मन: स्वरूपं (अस्ति ) ।
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