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मोक्ष अधिकार
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अन्वय :- येन कुलिशेन विना भूधरः न हि भिद्यते (तथैव) शुद्धात्मध्यानतः विना मोहप्रभृति-च्छेदः न (भवति)। ___सरलार्थ :- जिसप्रकार वज्र के बिना पर्वत नहीं भेदा जाता, उसीप्रकार शुद्ध आत्मा के ध्यान के बिना मोहादि कर्मों का छेद अर्थात् नाश नहीं होता।
भावार्थ :- इस श्लोक में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के नाश के सुनिश्चित निमित्त कारण का ज्ञान कराया है।
प्रश्न :- आठ कर्मों के नामों का उल्लेख ज्ञानावरण से प्रारंभ होता है, फिर श्लोक में ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय, ऐसा क्रम न लेकर मोहादि कर्मों का ऐसा क्रम क्यों लिया है?
उत्तर :- यहाँ कर्मों के स्वरूप का ज्ञान कराने का उद्देश्य नहीं है, अपितु कर्मों के नाश के क्रम का कथन करना है; अतः ग्रंथकार का क्रम सही है; आठों कर्मों में से सबसे पहले मोहनीयकर्म का ही नाश होता है। मोहकर्म का नाश बारहवें गुणस्थान के प्रथम समय में होता है। तदनंतर एक अंतर्मुहूर्त काल में ज्ञानावरणादि तीनों घातिकर्मों का क्षय/नाश होता है। _ग्रंथकार ने शुद्ध आत्मा के ध्यान को ही कर्मों के नाश का साधन/उपाय बताया है। इससे हमें यह भी समझना आवश्यक है कि सुख का उपाय, धर्म प्रगट करने का उपाय, संवर प्रगट करने का उपाय, निर्जरा प्रारंभ करने का, निर्जरा की वृद्धि का, निर्जरा पूर्ण करके मुक्ति का साधन भी शुद्ध आत्मा का ध्यान ही है, अन्य कुछ नहीं।
मोहादि के नाश में दर्शनमोहनीय अर्थात मिथ्यात्व का नाश भी गर्भित ही है। अतः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति का उपाय भी मात्र ध्यान ही है, अन्य क्रियाकाण्ड अथवा पुण्य नहीं है, यह विषय स्पष्ट है। ध्यान के पूर्व अथवा उससमय पुण्यपरिणाम का निषेध नहीं है तथा व्रतादि क्रिया और पुण्यपरिणाम को निमित्त मानने का भी यहाँ निषेध नहीं है। ध्यान से अत्यन्त आनंद -
विभिन्ने सति दुर्भेदकर्म-ग्रन्थि-महीधरे । तीक्ष्णेन ध्यानवज्रेण भूरि-संक्लेश-कारिणि ।।३०७।। आनन्दो जायतेऽत्यन्तं तात्त्विकोऽस्य महात्मनः।
औषधेनेव सव्याधेाधेरभिभवे कृते ।।३०८।। अन्वय :- सव्याधेः औषधेन व्याधे: अभिभवे कृते (सति तस्य) अत्यन्तं आनन्दः जायते इव भूरिसंक्लेशकारिणि दुर्भेदकर्मग्रन्थिमहीधरे तीक्ष्णेन ध्यानवज्रेण विभिन्ने सति अस्य महात्मनः (अत्यंत) तात्त्विकः (आनन्दः जायते)।
सरलार्थ :- जिसप्रकार औषधि के सेवन से रोगी के रोग दूर होने पर उसे अत्यन्त आनन्द होता है, उसीप्रकार (जीव को) अत्यंत दुःखदायक दुर्भेद कर्मरूपी पर्वत, तीक्ष्ण ध्यानरूपी वज्र से नष्ट होने पर इस महात्मा के अत्यन्त वास्तविक आनन्द होता है।
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