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________________ २०० निर्दोष आत्मा में केवलज्ञान का उदय - उदेति केवलं जीवे मोह - विघ्नावृति-क्षये । भानु-बिम्बमिवाकाशे भास्वरं तिमिरात्यये ।।३०४।। अन्वय :- तिमिर-अत्यये आकाशे भास्वरं भानु-बिम्बं इव मोह-विघ्नावृति-क्षये जीवे केवलं (ज्ञानं ) उदेति । सरलार्थ :- जिसप्रकार रात्रि का घोर अंधकार दूर होने पर आकाश में तेजस्वी सूर्यबिंब स्वयं उदय को प्राप्त होता है; उसीप्रकार मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा में केवलज्ञान स्वयं उदय को प्राप्त होता है । 1 योगसार प्राभृत भावार्थ :- यहाँ 'मोह' शब्द से सम्पूर्ण मोहनीय कर्म विवक्षित है, जिसकी मिथ्यात्व तथा कषायादि के रूप में २८ उत्तर प्रकृतियाँ हैं । 'विघ्न' शब्द से सारा अन्तराय कर्म विवक्षित है, जिसकी दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, वीर्यान्तराय नाम से ५ उत्तर प्रकृतियाँ हैं। 'आवृति' शब्द से आवरण विवक्षित है, जो ज्ञानावरण-दर्शनावरण कर्म के रूप में दो प्रकार का है। इसतरह जिन चार मूल प्रकृतियों का यहाँ उल्लेख है, उन्हें घाति कर्म प्रकृतियाँ कहा जाता है। बारहवें गुणस्थान के प्रारंभ से मुनिराज क्षीणमोही हो गये हैं और तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय से चारों घातिकर्मों के नाश से केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। यह सर्व व्यवहारनय की मुख्यता से कथन है । वास्तविक देखा जाय तो जब जीव के ज्ञानगुण की पूर्ण निर्मल पर्याय केवलज्ञान प्रगट होती है; उस समय चारों घाति कर्मों का अपने आप अर्थात् स्वयं ही अभाव हो जाता है। इस श्लोकगत विषय को तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के प्रथम सूत्र में निम्नप्रकार कहा है मोहक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच्च केवलम् । मलिन आत्मा में केवलज्ञान नहीं न दोषमलिने तत्र प्रादुर्भवति केवलम् । आदर्शे न मलग्रस्ते किंचिद् रूपं प्रकाशते । । ३०५ ।। अन्वय :- (यथा) मलग्रस्ते आदर्शे तत्र किंचित् (अपि) रूपं न प्रकाशते तथैव दोषमलिने (आत्मनि) केवलं (ज्ञानं ) न प्रादुर्भवति । सरलार्थ :- जैसे धूल से धूसरित दर्पण में किसी भी पदार्थ का रूप दिखाई नहीं देता; वैसे ही ज्ञानावरणादि कर्मरूप दोषों से दूषित / मलिन हुए आत्मा में केवलज्ञान प्रगट नहीं होता । भावार्थ : :- इस श्लोक में केवलज्ञान के प्रगट न होने को उदाहरण से बताया है। किसी भी वस्तु का प्रतिबिम्ब ठीक दिखलाई देने के लिये जिसप्रकार दर्पण का निर्मल होना परमावश्यक है; उसीप्रकार केवलज्ञान के उदय के लिये चार प्रकार के घाति कर्ममल का नाश होना परमावश्यक है । शुद्धात्मध्यान से मोह का नाश न मोह - प्रभृति-च्छेदः शुद्धात्मध्यानतो विना । कुलिशेन विना येन भूधरो भिद्यते न हि ।। ३०६।। [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/200]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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