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मोक्ष-अधिकार
मोक्ष का स्वरूप -
अभावे बन्ध-हेतूनां निर्जरायां च भास्वरः।
समस्तकर्म-विश्लेषो मोक्षो वाच्योऽपुनर्भवः ।।३०३।। अन्वय :- बन्ध-हेतूनां अभावे च निर्जरायां (सत्यां) समस्तकर्म-विश्लेष: भास्वरः अपुनर्भवः वाच्यः मोक्षः।
सरलार्थ :- नये कर्मबंध के कारणों का सर्वथा अभाव और पूर्व संचित कर्मों की निर्जरा होनेपर आत्मा से संपूर्ण कर्मों का जो विश्लेष अर्थात् पृथक होना, वह प्रकाशमान मोक्ष है, जिसे अपुनर्भव भी कहते हैं।
भावार्थ :- मोक्ष अधिकार का प्रारम्भ करते हुए सबसे पहले मोक्ष का स्वरूप दिया गया है। आत्मा से समस्त कर्मों का पूर्णतः सम्बन्धाभाव ही मोक्ष है, जिसे यहाँ 'विश्लेष' तथा तत्त्वार्थसूत्र में 'विप्रमोक्ष' शब्द से कहा गया है। वह मोक्ष तभी बनता है जब बन्ध के मिथ्यादर्शनादि वे सभी हेतु नष्ट हो जाते हैं, जिनका आस्रव तथा बन्ध अधिकारों में वर्णन है। साथ ही पूर्वसंचित कर्मों की पूर्णतः निर्जरा भी हो जाती है, जिससे न कोई नया कर्म, आस्रव तथा बन्ध को प्राप्त हो सकता है और न कोई पुराना कर्म अवशिष्ट ही रहता है। इस तरह सर्व प्रकार के समस्त कर्मों का जो सदा के लिये सम्बन्धाभाव हो जाता है उसे 'मोक्ष' कहते हैं।
इसका दूसरा नाम यहाँ ‘अपुनर्भव' बतलाया है; क्योंकि भवप्राप्ति अथवा संसार में पुनः जन्म लेने का कारण कर्मरूपी बीज था, वह जब जलकर नष्ट हो गया तब फिर उसमें अंकुर नहीं उगता। ऐसा ही आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वार्थसार के आठवें अध्याय के सातवें श्लोक में कहा है :
दग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्कुरः।
कर्म-बीजे तथा दग्धे न प्ररोहति भवाङ्कुरः॥ अर्थ :- जिसप्रकार बीज के अत्यंत जल जाने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसीप्रकार कर्मरूपी बीज के अत्यंत जल जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता। ____ तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के दूसरे सूत्र में ऐसा ही कथन निम्न शब्दों में आया है - 'बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः - बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है।'
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/199]