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योगसार-प्राभृत
पापेन वासितो नूनं पापे धर्मे न सर्वदा ।।२९८ ।। ज्ञानेन वासितो ज्ञाने नाज्ञानेऽसौ कदाचन ।
यतस्ततो मतिः कार्या ज्ञाने शुद्धिं विधित्सुभिः ।।२९९।। अन्वय :- धर्मेण वासितः जीव: नूनं धर्मे वर्तते न पापे, पापेन वासितः (जीवः) सर्वदा पापे (वर्तते) न धर्मे। ___ यतः ज्ञानेन वासितः (जीव:) ज्ञाने (वर्तते) असौ कदाचन अज्ञाने न; ततः शुद्धिं विधित्सुभिः ज्ञाने मति: कार्या।
सरलार्थ :- धर्म अर्थात् पुण्य से संस्कारित हुआ जीव निश्चय से पुण्य में सदा प्रवर्तता है, पाप में नहीं। पाप से संस्कारित हुआ जीव निश्चय से सदा पाप में प्रवृत्त होता है, पुण्य में नहीं। ___ज्ञान से संस्कारित हुआ जीव सदा ज्ञान में प्रवृत्त होता है, अज्ञान अर्थात् पुण्य-पाप में कदाचित् नहीं। इसलिए शुद्धि/वीतरागता/निर्जरा की इच्छा रखनेवाले को ज्ञान की उपासना/आराधना में बुद्धि लगाना चाहिए।
भावार्थ :- ग्रंथकार यहाँ दोनों श्लोकों में निर्जरातत्त्व का पूर्ण मर्म समझा रहे हैं। प्रश्न :- आपने यहाँ धर्म का अर्थ पुण्य कैसे किया?
उत्तर :- धर्म के साथ पाप को जोड़ा है और वास्तविक धर्म की बात को ज्ञान की उपासना शब्द से कहा है, इसकारण धर्म का अर्थ पुण्य किया है, जो प्रकरण के अनुसार योग्य है।
ज्ञान से संस्कारित का अर्थ 'मैं मात्र ज्ञाता-दृष्टा हूँ, पर का मैं किंचित मात्र भी कर्ता-धर्ता-हर्ता नहीं हूँ, ऐसा श्रद्धा और ज्ञान में स्वीकार करना ही समझना है। ज्ञान में ही प्रवृत होना - अर्थात् निज शुद्धात्मा में लीन होने का कार्य करना है। पर्याय में वीतरागता प्रगट करना है। ज्ञान का अर्थ शुद्धात्मा करते ही अज्ञान का अर्थ पुण्य-पाप हो ही जाता है। ___ "ज्ञान की आराधना में बुद्धि लगाने" का अर्थ अपने पास जो व्यक्त वर्तमानकालीन विकसित ज्ञान है, उसका ज्ञेय मात्र निज शुद्धात्मा को ही बनाना है। निर्जरा के लिये अपने ज्ञान को अपने स्वभाव में लगाने की प्रेरणा दी है; यही पुरुषार्थ है।
संक्षेप में पुण्य-पाप में प्रवृत्ति कर्म-बंध का कारण है और ज्ञान अर्थात् आत्मा में प्रवृत्ति निर्जरा का कारण है। ज्ञानी अज्ञान को नहीं अपनाता -
ज्ञानी निर्मलतां प्राप्तो नाज्ञानं प्रतिपद्यते।
मलिनत्वं कुतो याति काञ्चनं हि विशोधितम् ।।३००।। अन्वय :- निर्मलतां प्राप्तः ज्ञानी अज्ञानं न प्रतिपद्यते। हि विशोधितं काञ्चनं मलिनत्वं कुतः याति ? (नैव याति)।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/196]