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________________ निर्जरा अधिकार १९५ (तथा) ज्ञाने विशोधिते ज्ञानं अज्ञाने (च) अज्ञानं ऊर्जितं भवति । सरलार्थ :- जैसे स्वर्ण के विशोधित होनेपर शुद्ध स्वर्ण और लोहे के विशोधित होनेपर शुद्ध लोहा गुणवृद्धि/अतिशय को प्राप्त होता है; वैसे ज्ञान के विशोधित होने पर ज्ञान और अज्ञान के विशोधित होने पर अज्ञान ऊर्जित/अतिशय को प्राप्त होता है। भावार्थ:-ज्ञान में कछ अज्ञान मिला हो तो उसको दर करना ज्ञान का विशोधन' और अज्ञान में जो कुछ ज्ञान मिला हो उसका दूर करना ‘अज्ञान का विशोधन' कहलाता है। _ विशोधित ज्ञान और अज्ञान को समझाने के लिये शुद्ध स्वर्ण और शुद्ध लोहे का उदाहरण दिया है। __ मिथ्यात्व और सासादन गुणस्थान में अज्ञान विशोधित है। अविरतसम्यक्त्व गुणत्थान से लेकर आगे सर्व गुणस्थानों में और सिद्ध अवस्था में ज्ञान विशोधित है। सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में ज्ञान मिश्ररूप है। मोहरूप परिणाम में कर्म ही निमित्त, जीव-स्वभाव नहीं - प्रतिबिम्बं यथादर्श दृश्यते परसंगतः। चेतने निर्मले मोहस्तथा कल्मषसंगतः ।।२९७।। अन्वय :- यथा आदर्श परसंगतः प्रतिबिम्बं दृश्यते तथा निर्मले चेतने कल्मष-संगतः मोहः (दृश्यते)। सरलार्थ :- जिसप्रकार निर्मल दर्पण में परद्रव्य के संयोग से प्रतिबिंब दिखता है, स्वभाव से नहीं; उसीप्रकार अनादि-अनंत निर्मल/शुद्ध चेतन द्रव्य में द्रव्यमोहरूप पापकर्म के उदय से मोह परिणाम दिखता है, स्वभाव से नहीं। भावार्थ :- 'चेतनद्रव्य में द्रव्यमोहरूप पापकर्म के उदय से मोह परिणाम दिखता है' अर्थात् चेतन के ज्ञान गुण की पर्याय में मोह परिणाम जानने में आता है; ऐसा अर्थ करना चाहिए। विकार अर्थात् विभाव परिणमन में निमित्तरूप वस्तु पर ही होती है, स्वभाव से कोई भी वस्तु विभावरूप परिणमन नहीं करती। समयसार गाथा २७८-२७९ एवं इनकी टीका तथा भावार्थ में और कलश १७५ में भी यही विषय आया है। अतः आत्मार्थी समयसार का यह अंश सूक्ष्मता से अवश्य देखें। जीव पर का संग करने से ही रागादिरूप परिणमता है, स्वभाव से नहीं; इस कथन को आचार्य अमृतचंद्र ने उपरिम गाथाओं की संस्कृत टीका एवं १७५ तथा १७६ कलशों में वस्तुस्वभाव कहा है। आत्मशुद्धि के लिये ज्ञानाराधना - धर्मेण वासितो जीवो धर्मे पापे न वर्तते । [C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/195]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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