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________________ निर्जरा अधिकार १९७ सरलार्थ :- जैसे पूर्ण रीति से शुद्ध किया हुआ सुवर्ण मलिनता को प्राप्त नहीं होता, वैसे पूर्ण निर्मलता को प्राप्त हुआ ज्ञानी अज्ञान को प्राप्त नहीं होता । भावार्थ : - ज्ञानी का अर्थ अध्यात्म शास्त्र में सम्यग्दृष्टि से लेकर आगे के सभी गुणस्थानवर्ती साधक जीवों को लिया जाता है। यहाँ पूर्ण निर्मलता की बात लेंगे तो क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती अथवा अरहंत भगवान को ही समझना आवश्यक है। मोह पूर्ण नष्ट जाने पर पुनः अज्ञान (मोहराग-द्वेष) की प्राप्ति करने लायक परिणाम नहीं होते । सर्वज्ञ होने के बाद तो पुनः अज्ञान (अल्पज्ञता) प्राप्त करने का प्रश्न ही नहीं । इस कारण ही जिनेन्द्र भगवान के उपदेशानुसार एक बार अरहंत या सिद्ध परमेष्ठी होने के बाद पुनः संसार में अवतार लेने की बात ही नहीं है । T क्षायिक सम्यग्दृष्टि भी पुन: मिथ्यादृष्टि नहीं बनेगा, इस अपेक्षा से वह भी अज्ञान ( मिथ्यात्व ) को प्राप्त नहीं हो सकता, यह विवक्षा भी शास्त्रानुकूल ही है । विद्वानों के लिये ग्रंथकार का दिशानिर्देश - (मन्दाक्रान्ता) स्तिमितमनसा अध्येतव्यं ध्येयमाराधनीयं पृच्छ्यं श्रव्यं भवति विदुषाभ्यस्यमावर्जनीयम् । वेद्यं गद्यं किमपि तदिह प्रार्थनीयं विनेयं दृश्यं स्पृश्यं प्रभवति यतः सर्वदात्मस्थिरत्वम् ।।३०१ ।। अन्वय :- इह विदुषा तद् किमपि स्तिमितमनसा अध्येतव्यं ध्येयं आराधनीयं पृच्छ्यं श्रव्यं अभ्यस्यं आवर्जनीयं वेद्यं गद्यं प्रार्थनीयं विनेयं दृश्यं स्पृश्यं भवति यत: सर्वदा आत्मस्थिरत्वं प्रभवति । सरलार्थ :- इस लोक में विद्वानों के लिये वह कोई भी पदार्थ स्थिर चित्त से अध्ययन के योग्य, ध्यान के योग्य, आराधन के योग्य, पूछने के योग्य, सुनने के योग्य, अभ्यास के योग्य, संग्रहण के योग्य, जानने के योग्य, कहने के योग्य, प्रार्थना के योग्य, प्राप्त करने के योग्य, देखने के योग्य और स्पर्श के योग्य होता है, जिसके अध्ययनादि से आत्मस्वरूप की स्थिरता सदा वृद्धि को प्राप्त होती है। भावार्थ इस श्लोक में विद्वान् के लिये अध्ययनादि - विषयक जीवन के लक्ष्य को बड़ी सुन्दरता के साथ व्यापक रूप में व्यक्त किया है। वह लक्ष्य है अपने आत्मस्वरूप में स्थिरता की उत्तरोत्तर वृद्धि का । यदि उक्त लक्ष्य नहीं है तो अध्ययनादि सभी व्यर्थ हैं। विद्वान का अर्थ यहाँ श्रावक और साधु दोनों को भी ले सकते हैं। इस श्लोक के आधार से हमें यह भी समझना आवश्यक है कि जो कोई शास्त्र का वक्ता है, उसे कथाकथन, प्रवचन, चर्चा में हमेशा अपना आत्मकल्याण का लक्ष्य मुख्य रखना चाहिए। यदि प्रवचन में वीतरागतारूप [C:/PM65/smarakpm65 / annaji/yogsar prabhat.p65/197]
SR No.008391
Book TitleYogasara Prabhrut
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages319
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size920 KB
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