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निर्जरा अधिकार
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भावार्थ :- मुनिराज मोक्ष-प्राप्ति के लिये ही अंतरंग-बहिरंग परिग्रह छोड़कर आत्मध्यान में रत होने का प्रयास करते हैं। उनका यह वर्तमानकालीन जीवन मोक्षमार्गरूप होता है। मोक्षमार्ग में कर्मों की निर्जरा होना आवश्यक है। कर्मों की निर्जरा का प्रयोजन सिद्ध हो जाय, ऐसा आचरण जिनवाणी में बताया है। इसलिए इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि जिनागम द्वारा प्रदर्शित अनुष्ठान अर्थात् आचरण पद्धति कर्मों की निर्जरा का कारण होती है। यदि शास्त्र में कथित आचरण से कर्मों की निर्जरा नहीं होगी तो मुनिराज का जीवन मोक्षमार्गमय नहीं होगा। अतः शास्त्र में कथित आचरण निर्जरा का कारण बताया है। यह कार्य, तत्त्व को जाननेवाले मुनिराज के जीवन में ही होता है, यह विषय भी श्लोक में स्पष्ट किया है। अज्ञानी तथा ज्ञानी के विषय-सेवन का फल -
अज्ञानी बध्यते यत्र सेव्यमानेऽक्षगोचरे।
तत्रैव मुच्यते ज्ञानी पश्यताश्चर्यमीदृशम्।।२७०।। अन्वय :- अक्षगोचरे सेव्यमाने यत्र अज्ञानी बध्यते तत्र एव ज्ञानी (बन्धतः) मुच्यते ईदृशं आश्चर्यं पश्यत ।
सरलार्थ :- स्पर्शादि इंद्रिय-विषयों के सेवन करने पर जहाँ अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि कर्म-बन्ध को प्राप्त होते हैं, वहाँ ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि उसी स्पर्शादि इंद्रिय-विषय के सेवन से कर्म-बन्धन से छूटते हैं अर्थात् कर्मों की निर्जरा करते हैं, इस आश्चर्य को देखो।
भावार्थ :- ज्ञानी/सम्यग्दृष्टि विषय-सेवन करने पर भी कर्मों से नहीं बंधते, इसमें ज्ञान और वैराग्य का माहात्म्य है, ऐसा समयसार कलश १३४, १३५, १३६ में स्पष्ट किया है। समयसार गाथा १९३ से २०० पर्यंत आठ गाथाएँ उनकी टीका, कलश और भावार्थ में यह विषय पुनः पुनः आया है। इस समग्र प्रकरण को जरूर देखें।
यहाँ इतना और समझना आवश्यक है कि भोग भोगते समय चारित्रमोह परिणाम से जितना कर्म-बंध गोम्मटसारादि आगम ग्रंथों में बताया है, वह तो होता ही है; तथापि मिथ्यात्व के अभाव के कारण जो प्रगट वीतरागता है, उससे जितने कर्मों का संवर हो चुका है, उन कर्मों का बंध नहीं होता, उसे ही यहाँ बंध नहीं होता, ऐसा समझना । अध्यात्म शास्त्र में मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी के बंध को या इनके साथ-साथ होनेवाले कर्म-बन्ध को ही बंध में गिना जाता है; इस दृष्टि को पाठक यहाँ ख्याल में रखेंगे तो यथार्थ अर्थ समझ में आयेगा; अन्यथा अज्ञानी स्वच्छन्द भी हो सकता है। _इसलिए समयसार ग्रंथ में अनेक स्थान पर स्वच्छंद न होने संबंधी प्रेरणा भी दी है। अतः इस सन्दर्भ में समयसार कलश १३७ को भावार्थसहित देखना लाभप्रद होगा। निर्विकल्प अर्थात् वीतरागता से निर्जरा -
शुभाशुभ-विकल्पेन कर्मायाति शुभाशुभम् ।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/179]