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योगसार-प्राभृत अन्वय :- विचित्रे चरणाचारे वर्तमानः अपि जिनागमं अजानानः संयतः गतचक्षुषः सदृशः (भवति)।
सरलार्थ :- अनेक प्रकार के आचरण में प्रवर्तमान होते हुए भी जो संयमी जिनागम को नहीं जानता, वह चक्षुहीन के समान हैं अर्थात् उसका सर्व आचरण अन्धानुकरण/अन्धाचरण है अर्थात् व्यर्थ है।
भावार्थ :- प्रवचनसार गाथा २३२ से २३७ पर्यंत सात गाथाओं में मुनिराज को आगमज्ञान की विशेष अनिवार्यता बताई गयी है। उन सब गाथाओं का मर्म एक श्लोक में देने का प्रयास यहाँ किया है। इस श्लोक का पूर्ण अभिप्राय जानना हो तो प्रवचनसार की उक्त सब गाथाओं, उनकी टीका और भावार्थ का भी सूक्ष्मता से अध्ययन करना चाहिए। विस्तारभय से हमने यहाँ नहीं लिखा। भिन्न-भिन्न चक्षुधारक जीव -
साधूनामागमश्चक्षुर्भूतानां चक्षुरिन्द्रियम् ।
देवानामवधिश्चक्षुर्निर्वृताः सर्व-चक्षुषः ।।२६८।। अन्वय :- साधूनां चक्षुः आगम:, भूतानां चक्षुः इन्द्रियं, देवानां चक्षुः अवधिः (भवति)। च निर्वृता: सर्व-चक्षुषः (भवन्ति)।
सरलार्थ :- साधु अर्थात् मुनिराज आगमरूप चक्षुवाले हैं, सर्वजीव (संसारी) इंद्रिय चक्षुवाले हैं, देव अवधिचक्षुवाले हैं और सिद्ध भगवान सर्वतः चक्षु अर्थात् सर्व ओर से चक्षुवाले/सर्वात्मप्रदेशों से चक्षुवाले (सर्वज्ञ) हैं।
भावार्थ :- आचार्य कुंदकुंद के प्रवचनसार गाथा २३४ का यह श्लोक मानों संस्कृत में पद्यानुवादरूप सफल प्रयास ही है। प्रवचनसार की मूलगाथा निम्नानुसार है -
आगमचक्खू साहू, इंदियचक्खूणि सव्वभूदाणि ।
देवा य ओहिचक्खू, सिद्धा पुण सव्वदो चक्खू।। साधु को आगमज्ञाता होना और जिनागम के अनुसार आचरण करना, ये दोनों ही अति आवश्यक हैं। आगम-प्रदर्शित अनुष्ठान का कार्य -
प्रदर्शितमनुष्ठानमागमेन तपस्विनः।
निर्जराकारणं सर्वं ज्ञात-तत्त्वस्य जायते ।।२६९।। अन्वय :- आगमेन प्रदर्शितं सर्वं अनुष्ठानं ज्ञात-तत्त्वस्य तपस्विनः निर्जरा-कारणं जायते।
सरलार्थ :- जिनागम के द्वारा प्रदर्शित अनुष्ठान अर्थात् आचरण-पद्धति तत्त्वज्ञ मुनिराजों के ज्ञानावरणादि कर्मों के निर्जरा का कारण होती है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/178]