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निर्जरा अधिकार
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लोकाचार अपनाने से संयम हीन होता है -
हित्वा लोकोत्तराचारं लोकाचारमुपैति यः।
संयमो हीयते तस्य निर्जरायां निबन्धनम्।।२६५।। अन्वय :- यः (योगी) लोकोत्तरं आचारं हित्वा लोकाचारं उपैति; तस्य निर्जरायां निबन्धनं संयमः हीयते।
सरलार्थ :- जो मुनिराज लोकोत्तर आचार अर्थात् अलौकिक वृत्ति को छोड़कर लोकाचार/ लोकरंजक लौकिक आचरण को अपनाते हैं, उनका निर्जरा का कारणरूप संयम हीन हो जाता है।
भावार्थ :- मुनिराज की वृत्ति तो अलौकिक ही होती है, इसकी चर्चा इसी अध्याय के ८वें श्लोक एवं भावार्थ में आई है। भगवती आराधना, मूलाराधना, अनगारधर्मामृत आदि चरणानुयोग के ग्रंथों को भी आप देख सकते हैं। प्रवचनसार की चरणानुयोगचूलिका भी इस विषय को समझने के लिये अति उपयोगी है।
प्रवचनसार गाथा २५३ और उसकी टीका में रोगी गुरु, बाल तथा वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से शुभोपयोगयुक्त लौकिक जनों के साथ की बातचीत निन्दित नहीं है - ऐसा कहा है। मुनिराज के जीवन का यथार्थ ज्ञान करने के लिये अष्टपाहुड ग्रंथ का अध्ययन भी उपकारक है। अरहंत-वचनों के श्रद्धान का महत्त्व -
चारित्रं विदधानोऽपि पवित्रं यदि तत्त्वतः।
श्रद्धत्ते नार्हतं वाक्यं न शुद्धिं श्रयते तदा ।।२६६।। अन्वय :- पवित्रं चारित्रं विदधानः अपि (योगी) यदि अर्हतं वाक्यं तत्त्वत: न श्रद्धत्ते तदा शुद्धिं न श्रयते।
सरलार्थ :- जिनागम में प्रतिपादित पवित्र चारित्र का कठोरता से पूर्ण पालन करते हुए भी यदि मुनिराज अरहंत के वचनों का यथार्थ श्रद्धान नहीं करते तो वे शुद्धि को प्राप्त नहीं होते।
भावार्थ :- श्रावक हो अथवा मुनिराज उन्हें जिनवचन का श्रद्धानी होना अत्यंत आवश्यक है। देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा न हो तो व्यवहार जैनपना भी संभव नहीं है । जहाँ व्यवहार जैनपना नहीं है, वहाँ निश्चय/वास्तविक जैनपना की कल्पना करना भी व्यर्थ है। श्रद्धान, धर्म का मूल है; इसलिए आचार्य कुंदकुंद ने अष्टपाहुड के दर्शनपाहुड गाथा २ में दंसणमूलो धम्मो कहा है। जिसे जिनवचन का श्रद्धान नहीं है, उसे शास्त्र का श्रद्धान नहीं है, ऐसा समझना चाहिए । देव-शास्त्र-गुरु - इन तीनों में से किसी एक का श्रद्धान न हो तो उसे अन्य दो का भी यथार्थ श्रद्धान नहीं होता। जिनागम के ज्ञान का महत्त्व -
विचित्रे चरणाचारे वर्तमानोऽपि संयतः। जिनागममजानानः सदृशो गतचक्षुषः ।।२६७।।
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