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योगसार-प्राभृत
भुज्यमाने ऽखिले द्रव्ये निर्विकल्पस्य
नि ज ' र । ।। २ ७ १ ।। अन्वय :- शुभ-अशुभ-विकल्पेन शुभ-अशुभं कर्म आयाति । अखिले द्रव्ये भुज्यमाने (अपि) निर्विकल्पस्य निर्जरा (जायते)।
सरलार्थ :- अज्ञानी/मिथ्यादृष्टि को शुभाशुभ विकल्प अर्थात् राग-द्वेष के कारण पुण्यपापरूप कर्म का आसव-बंध होता है। सम्पर्ण द्रव्य समह अर्थात स्पर्शादि सर्व विषयों को भोगते हुए भी जो निर्विकल्प अर्थात् कथंचित् वीतरागी है, उसको कर्म की निर्जरा होती है।
भावार्थ :- पिछले श्लोक में कथित विषय को ही इस श्लोक में अधिक स्पष्ट किया है। विकल्प शब्द का अर्थ मिथ्यात्व सहित राग-द्वेषरूप परिणाम करना चाहिए; क्योंकि इसके बिना पुण्य-पाप के आस्रव-बंध की बात घटित नहीं होती। ___ निर्विकल्प शब्द का अर्थ कथंचित् वीतरागी अर्थात् सम्यग्दृष्टि श्रावक लेना आवश्यक है; क्योंकि इस अर्थ के बिना संपूर्ण द्रव्य को भोगनेवाला, यह अर्थ घटित नहीं हो सकता। मुनिराज द्रव्यों को भोगनेवाले नहीं है; मुनिराज तो भोगों के त्यागी होते हैं।
मुख्यरूप से श्रावकरूप साधक के जीवन में चारित्र गुण की पर्याय मिश्ररूप से चलती है। एक ही पर्याय में दो कषाय चौकड़ी का अभाव हुआ, उसके कारण निरंतर वीतरागता व्यक्त है और जितनी मात्रा में कषायों का उदय है उतनी मात्रा में राग-द्वेष होते हैं । अतः एक ही समय आस्रव-बंध
और संवर-निर्जरा चारों तत्त्व व्यक्त रहते हैं। यहाँ साधक के कथंचित् वीतरागता की मुख्यता को लेकर उसे निर्जरा होती है, ऐसा कथन किया है। उसको भूमिका के अनुसार होनेवाले आस्रव-बंध को यहाँ गौण किया है।
अगले श्लोक में योगी की निर्जरा कही गयी हैं, इसकारण भी इस श्लोक में श्रावक की निर्जरा बतलाई गई हैं, यह विषय स्पष्ट हो जाता है। अपरिग्रही योगीराज की निर्जरा -
अहमस्मि न कस्यापि न ममान्यो बहिस्ततः।
इति निष्किंचनो योगी धुनीते निखिलं रजः ।।२७२।। अन्वय :- अहं न कस्य अपि अस्मि, न अन्य: बहिः मम (अस्ति), इति ततः (परद्रव्यतः) निष्किंचन: योगी निखिलं रजः धुनीते ।
सरलार्थ :- मैं किसी भी पुत्र-कलत्रादि का नहीं हूँ और न अन्य पुत्रादि अथवा धनादि बाह्य पदार्थ मेरे हैं; इसप्रकार किसी भी रूप से पर को न अपनाते हुए अपरिग्रही/निःसंग योगिराज सारे कर्मरूपी रज को नष्ट कर देते हैं।
भावार्थ :- हम न किसी के कोई न हमारा - यह निर्णय तो सम्यग्दृष्टि को भी पक्का ही होता
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/180]