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योगसार-प्राभृत
अखिलं (कर्म) मलं क्षालयते ।
सरलार्थ :- जो मुनिराज मिथ्यात्व-कषायादि अन्तरंग परिग्रह तथा क्षेत्र-वास्तु आदि बहिरंग परिग्रह के संपूर्ण त्यागी; असि, मसि आदि षट्कर्मों से रहित एवं जितेन्द्रिय हैं और लोकाचार से पराङ्मुख होकर अलौकिक हो गये हैं, वे महान योगी सम्पूर्ण कर्म-मल को धो डालते हैं। __ भावार्थ :- मिथ्यात्व, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद ये चौदह अन्तरंग परिग्रह हैं । क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन-धान्य, दासी-दास, वस्त्र और बर्तन ये दस बाह्य परिग्रह हैं। मुनिराज इन २४ परिग्रहों के त्यागी हैं। इन परिग्रहों के त्याग का मर्म समझने के लिये पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट से प्रकाशित 'धर्म के दशलक्षण' पुस्तक का आकिंचन्यधर्म वाला निबन्ध अवश्य पढ़ें।
असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प, वाणिज्य इन षट्कर्मों को भी मन-वचन-काय से तथा कृत, कारित, अनुमोदना से मुनिराज ने छोड़ दिया है। स्पर्श, रस आदि इन्द्रियों के विषयों की भोगलालसा मुनिराज के जीवन में लेशमात्र भी नहीं है। शादी/विवाह, जन्म-मरण के प्रसंग पर दूसरे के घर जानेरूप लोकाचार छोड़कर मुनिराज अलौकिक हो गये हैं। इसतरह जिनका जीवन हो गया है, वे ही महामानव संपूर्ण कर्मों की निर्जरा करने के लिए पात्र/समर्थ हैं। ___ पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक १६ में आचार्य अमृतचन्द्र ने मुनियों के जीवन को अलौकिकी वृत्ति कहा है। इस श्लोक की पंडित प्रवर टोडरमलजी रचित टीका पढ़ने से अलौकिक वृत्ति का सही परिचय होता है, अतः उसे अवश्य पढ़ें। विशुद्धभावधारी कर्मक्षय का अधिकारी -
शुभाशुभ-विशुद्धेषु भावेषु प्रथम
यो विहायान्तिमं धत्ते क्षीयते तस्य कल्मषम् ।।२६१॥ अन्वय :- शुभ-अशुभ-विशुद्धेषु भावेषु प्रथम-द्वयं विहाय यः (साधकः) अन्तिम (विशुद्ध-भावं) धत्ते तस्य कल्मषं क्षीयते।
सरलार्थ :- जीव के शुभ, अशुभ एवं विशुद्ध इसतरह तीन भाव हैं। इनमें से पहले शुभअशुभ-इन दो भावों को छोड़कर अर्थात् हेय मानते हुए/गौण करके अंतिम अर्थात् तीसरे विशुद्ध भावों को जो धारण करते हैं, वे साधक कषायों का नाश करते हैं।
भावार्थ :- जीव के तीन प्रकार के परिणाम हैं - १. शुभ, २. अशुभ और ३. विशुद्ध । इन तीनों को अशुद्ध और शुद्ध दो में भी विभाजित कर सकते हैं। अशुद्ध में शुभ और अशुभ दोनों गर्भित हैं। शुभ परिणाम से पुण्य कर्म का बंध होता है। अशुभ परिणाम से पाप कर्म का बंध होता है और शुभ-अशुभ से रहित शुद्ध/विशुद्ध परिणाम से कर्म का बंध तो होता ही नहीं, संवर एवं
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