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निर्जरा अधिकार
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ग्रहण करना उचित प्रतीत होता है। संवर के बिना निर्जरा नहीं -
संवरेण बिना साधो स्ति पातकनिर्जरा।
नूतनाम्भ:प्रवेशोऽस्ति सरसो रिक्तता कुतः ।।२५८।। अन्वय :- (यथा) नूतन-अम्भःप्रवेशः अस्ति (तर्हि) सरस: रिक्तता कुतः (जायते) ? (तथा) संवरेण बिना साधोः (कर्मणां) पातक-निर्जरा न अस्ति।
सरलार्थ :- जैसे सरोवर में नये जल के प्रवेश को रोके बिना सरोवर को जल से रहित नहीं किया जा सकता, वैसे ही मिथ्यात्वादि के संवर के बिना साधु के पाप कर्मों की अपाकजा/ अविपाक निर्जरा नहीं हो सकती; (अतः पहले मिथ्यात्व का संवर करना चाहिए।)
भावार्थ :- मुनिराज का प्रकरण होने से श्लोक में साधु को निर्जरा नहीं हो सकती (साधोः पातक-निर्जरा नास्ति) ऐसा लिखा है। वास्तविक देखा जाय तो श्रावक को तथा अविरत सम्यग्दृष्टि को भी मिथ्यात्व के संवर बिना निर्जरा तत्त्व प्रगट नहीं होता।
निर्जरा अधिकार में तो ग्रंथकार को निर्जरातत्त्व का कथन करना है, सविपाक निर्जरा का नहीं; क्योंकि धर्म-क्षेत्र में सविपाक निर्जरा को कोई स्थान ही नहीं है। एकाग्र चित्त साधु ही कर्मों के नाशक -
रत्नत्रयमयं ध्यानमात्मरूपप्ररूपकम् ।
अनन्यगतचित्तस्य विधत्ते कर्मसंक्षयम् ।।२५९।। अन्वय :- अनन्यगतचित्तस्य (योगिनः) आत्मरूप-प्ररूपकं रत्नत्रयमयं ध्यानं कर्म-सक्षयं विधत्ते।
सरलार्थ :- अनन्य चित्तवृत्ति के धारक अर्थात् एकाग्रचित्तवृत्तिवाले मुनिराज का आत्मस्वरूप का प्रतिपादक रत्नत्रयमयी ध्यान कर्मों का विनाश करता है।
भावार्थ :- मूल विषय यह है कि ध्यान ही कर्मों का विनाश करता है, अन्य कोई नहीं। वह ध्यान रत्नत्रयमय अर्थात् सम्यक् श्रद्धा, ज्ञान और चारित्रमय है, अन्य क्रियाकाण्डमय अथवा शुभपरिणामस्वरूप नहीं। वह रत्नत्रय आत्मस्वरूप का प्ररूपक है। उस रत्नत्रय के धारक मुनिराज नियम से ध्यान के समय एकाग्रचित्तवाले ही होते हैं, चंचलचित्तवाले नहीं। मात्र ध्यान से ही कर्मों का नाश होता है, ऐसा कहना अलग बात है और ध्यान के यथार्थ स्वरूप को समझना अलग बात है। संपूर्ण कर्म-मल को धो डालनेवाले का स्वरूप -
त्यक्तान्तरेतरग्रन्थो निर्व्यापारो जितेन्द्रियः।
लोकाचारपराचीनो मलं क्षालयतेऽखिलम् ।।२६०।। अन्वय :- त्यक्त-अन्तर-इतर-ग्रन्थः, निर्व्यापारः, जितेन्द्रियः लोकाचारपराचीनः (साधुः)
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/173]