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योगसार-प्राभृत
वीतरागता के निमित्त से अकाल प्राप्त कर्मों की उदीरणा होकर उदय में आने का क्रम चालू रहता है। पूर्वबद्ध कर्मों के स्थिति-अनुभाग के घटने को अपकर्षण कहते हैं और बढ़ने को उत्कर्षण कहते हैं। ध्यानावस्था में बढ़ती हुई वीतरागता के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्म निश्चित समय के पहले फल देकर निकल जाते हैं - इसप्रकार अपाकजा निर्जरा होती है। ध्यान से ही सर्वोत्तम निर्जरा -
दूरीकृत-कषायस्य विशुद्धध्यानलक्षण
। विधत्ते प्रक्रमः साधोः कर्मणां निर्जरां पराम् ।।२५६।। अन्वय :- दूरीकृतकषायस्य साधो: विशुद्ध-ध्यान-लक्षण: प्रक्रमः कर्मणां परां निर्जरां विधत्ते।
सरलार्थ :- जिन मुनिराज ने क्रोधादि कषाय परिणामों को दूर किया है, उन मुनिराज ने विशुद्धध्यानरूप लक्षणवाला प्रक्रम/उपक्रम अर्थात् कार्य किया है। (यह कार्य ही भावनिर्जरा है)। इससे ज्ञानावरणादि आठों द्रव्यकर्मों की सर्वोत्तम निर्जरा होती है।
भावार्थ :- कषायों को दूर करने का कार्य तो मुनिराज के जीवन का प्राण/मुख्य ध्येय है। छठवे गुणस्थान में कषाय का मात्र कण ही विद्यमान रहता है, ऐसा कथन आचार्य अमृतचन्द्र ने प्रवचनसार की ५वीं गाथा की टीका में किया है । क्षपक श्रेणी के आठवें गुणस्थान में तो कषायों को दूर करने का कार्य अति तीव्र गति से होता है। उसी काल में विशुद्ध ध्यानरूप कार्य भी समय-समय प्रति बढ़ता रहता है और द्रव्यकर्मों की निर्जरा भी असंख्यात गुणी होती जाती है। बारहवें गुणस्थान के पूर्व कषाय-नोकषायों का सम्पूर्ण क्षय ही हो जाता है। वहाँ की निर्जरा उत्कृष्ट समझना चाहिए। सर्वोत्तम निर्जरा का स्वामी -
आत्मतत्त्वरतो योगी कृत-कल्मष-संवरः।
यो ध्याने वर्तते नित्यं कर्म निर्जीर्यतेऽमुना ।।२५७।। अन्वय :- यः कृत-कल्मष संवरः आत्म-तत्त्व-रत: योगी नित्यं ध्याने वर्तते अमुना कर्म निर्जीर्यते।
सरलार्थ :- जो मुनिराज निज शुद्ध आत्मतत्त्व में सदा लवलीन रहते हैं, जिन्होंने सकल कषाय-नोकषायरूप पाप का संवर किया है तथा जो सदा मात्र ध्यान में प्रवृत्त रहते हैं, वे ही कर्मों की उत्कृष्ट निर्जरा करते हैं, अन्य कोई नहीं।
भावार्थ :-पिछले श्लोक में कथित विषय को यहाँ और दृढ़ता से कहते हुए उत्कृष्ट निर्जरा के स्वामी का ज्ञान कराया है। श्लोक में आत्मतत्त्वरतः और ध्याने नित्यं वर्तते इसतरह आत्मध्यान का विषय दो-दो बार कहते हुए क्षपकश्रेणी आरूढ़ मुनिराज की ओर ही स्पष्ट संकेत किया है। श्रेणी के अन्य गुणस्थानों को गौण करते हुए मात्र क्षीणमोही मुनिराज को ही सर्वोत्तम निर्जरा का स्वामी
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