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निर्जरा अधिकार
१७१ सरलार्थ :- पाकजा निर्जरा में पके हुए अर्थात् उदय काल को प्राप्त ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का विनाश होता है । अपाकजा निर्जरा में पके-अपके अर्थात् काल प्राप्त-अकालप्राप्त दोनों प्रकार के ज्ञानावरणादि आठों कर्मों का विनाश होता है।
भावार्थ :- पाकजा निर्जरा को अन्य शास्त्र में सविपाक निर्जरा नाम से भी कहा गया है।
जब कर्म का स्थितिबन्ध का काल पूरा हो जाने के कारण कर्म, फल देकर निकल जाते हैं, उसे ही पाकजा निर्जरा, काल प्राप्त निर्जरा अथवा सविपाक निर्जरा कहते हैं । जब कालप्राप्त निर्जरा से जो कर्म निकल जाता है, तब वह पीछे अपनी परम्परा को छोड़कर जाता है; क्योंकि उस समय जीव कर्मोदयानुसार मोहादि परिणाम के कारण नये कर्म का बन्ध कर लेता है। यह पाकजा निर्जरा एकेन्द्रिय से लेकर सभी ज्ञानी-अज्ञानी जीवों को होती है। यह कार्य धर्मरूप पुरुषार्थ और संवर के बिना सहज होता है। इस निर्जरा को निर्जरा तत्त्व नहीं कहते। __ अपाकजा निर्जरा को अन्य शास्त्र में अविपाक निर्जरा नाम से भी कहा गया है। जब मोक्षमार्गस्थ जीव अनुकूल-प्रतिकूल अवस्था में ज्ञाता-दृष्टारूप पुरुषार्थ के कारण पूर्वबद्ध कर्मों की उदीरणा करके अकाल में उदय में लाकर कर्मों को निर्जरित करता है, उसे अविपाक निर्जरा अथवा अपाकजा निर्जरा कहते हैं और इसे ही अकालप्राप्त निर्जरा भी कहते हैं। यह निर्जरा अपनी परम्परा पीछे छोड़कर नहीं जाती; क्योंकि जीव ज्ञाता-दृष्टारूप परिणत होने से नये कर्मों का बंध नहीं करता। यह निर्जरा सम्यग्दृष्टि आदि ज्ञानी जीव ही अपने पुरुषार्थ के अनुसार करते हैं। इस निर्जरा को निर्जरा तत्त्व में गिना जाता है और यह निर्जरा संवरपूर्वक होती है। अपाकजा निर्जरा का उदाहरण -
शुष्काशुष्का यथा वृक्षा दह्यन्ते दव-वह्निना।
पक्वापक्वास्तथा ध्यान-प्रक्रमेणाघसंचयाः ।।२५५।। अन्वय :- यथा दव-वह्निना शुष्क-अशुष्का: वृक्षाः दह्यन्ते; तथा ध्यानप्रक्रमेण पक्वअपक्वा: अघसंचयाः (दह्यन्ते)। - सरलार्थ :- जिसप्रकार दावानलरूपी अग्नि से सूखे वृक्षों की तरह गीले वृक्ष भी जलकर नष्ट होते हुए राख बन जाते हैं; उसीप्रकार अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी अग्नि से कालप्राप्त तथा अकालप्राप्त कर्मसमूह भस्म हो जाते हैं।
भावार्थ :- अत्यन्त प्रज्वलित तीक्ष्ण अग्नि का नाम दावानल' है, जो वन को भस्म कर देती है। सूखे की तरह गीले-हरे वृक्ष भी उसकी लपेट में आकर भस्म होने से बच नहीं पाते । एकाग्रचिन्तारूप ध्यान भी ऐसी ही प्रबल अग्नि है, उसकी लपेट में आया हुआ कोई भी कर्म चाहे वह उदय के योग्य हो या न हो, उदीरणा को प्राप्त होने से निर्जरित होकर नष्ट हो जाता है। इस तरह यहाँ पिछले श्लोक में उल्लिखित अपाकजा निर्जरा की शक्ति को दावानल के उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/171]