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निर्जरा-अधिकार
निर्जरा का लक्षण और भेद -
पूर्वोपार्जित-कर्मैक-देश-संक्षय-लक्षणा।
निर्जरा जायते द्वेधा पाकजापाकजात्वतः ।।२५३।। अन्वय :- पूर्व-उपार्जित-कर्म-एकदेश-संक्षय-लक्षणा निर्जरा; (या) पाकजाअपाकजात्वत: द्विधा जायते।
सरलार्थ :- पूर्व अर्थात् पहले/भूतकालीन जीवन में बन्धे हुए ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्मों का आंशिक विनाश हो जाना जिसका लक्षण है, उसे निर्जरा कहते हैं; उसके पाकजा निर्जरा और अपाकजा निर्जरा इसतरह दो भेद हैं।
भावार्थ :- जीव अनादिकालीन द्रव्य है और जीव को अनादिकाल से ही मोह-राग-द्वेष के निमित्त से कर्म का बन्ध निरन्तर हो रहा है । इसतरह प्रत्येक संसारी जीव के साथ पूर्वबद्ध कर्म हैं और उसका हर समय उदय में आकर खिर जाने का कार्य भी हो रहा है।
निर्जरा अधिकार का प्रारम्भ करते हुए यहाँ सबसे पहले निर्जरा का लक्षण दिया है और वह लक्षण है पूर्वोपार्जित कर्मों का एकदेश विनाश । पूर्वोपार्जित कर्मों में पूर्व जन्मों के तथा इस जन्म में किए हए कर्म भी शामिल हैं। कर्म के एकदेश संक्षय का अर्थ है आंशिक-विनाश पूर्णतः विनाश नहीं; क्योंकि कर्मों के पूर्णतः विनाश होने का नाम तो मोक्ष है, निर्जरा नहीं। जबतक नये कर्मों का एकदेश आस्रव नहीं रुकता और बन्ध-हेतुओं का एकदेश अभाव नहीं होता, तबतक होनेवाली निर्जरा को निर्जरातत्त्व नहीं कहते । उक्त निर्जरा के दो भेद हैं - एक पाकजा , दूसरी अपाकजा । इन दोनों का स्वरूप अगले श्लोक में दिया ही है। दोनों निर्जरा का स्वरूप -
प्रक्षयः पाकजातायां पक्वस्यैव प्रजायते।
निर्जरायामपक्वायां पक्वापक्वस्य कर्मणः ।।२५४।। अन्वय :- पाकजातायां पक्वस्य एव (कर्मण:) प्रक्षयः प्रजायते। अपक्वायां निर्जरायां पक्क-अपक्वस्य कर्मणः (प्रक्षयः प्रजायते)।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/170]