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निर्जरा अधिकार
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निर्जरा होते हैं। परिणाम और कर्म का ऐसा संबंध होने पर भी अज्ञानी को पुण्य परिणाम में धर्म का भ्रम होता है। शुभाशुभ परिणाम दुःखरूप तथा दुःख का कारण हैं। विशुद्ध/शुद्ध परिणाम सुखरूप तथा सुख का कारण है। अन्य शब्दों में शुभाशुभ परिणाम संसार एवं संसार के कारण हैं और विशुद्ध परिणाम संवर, निर्जरा एवं मोक्ष के कारण हैं।
शास्त्र में अनेक स्थान पर व्यवहारनय से शुभ परिणाम एवं पुण्य को धर्म भी कहा है, वहाँ विवक्षा समझ लेना आवश्यक है।
प्रश्न :- श्लोक में शुभ एवं अशुभ भावों को छोड़कर शुद्धभाव को धारण करने की बात कही है; उसका मर्म हमें समझ में नहीं आया; हमें क्या करना चाहिए? __ उत्तम :- छोड़कर शब्द का प्रयोग किया है, लेकिन यहाँ दोनों - शुभाशुभ परिणामों को हेय मानना ऐसा अर्थ करना चाहिए; क्योंकि किसी भी साधक के जीवन में शुभाशुभ परिणामों का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। अपनी भूमिका के अनुसार कुछ शुभाशुभ परिणाम होते ही रहते हैं।
प्रश्न :- आप शब्द के अर्थ को बदलकर मर्म समझने की बात क्यों करते हो? जो शब्द आया है उसका सीधा अर्थ लगाकर ही सर्व समझना चाहिए, ऐसा क्यों नहीं कहते?
उत्तर :- शास्त्र के अर्थ समझने की पद्धति ही यह है कि प्रकरण वश जिसका जो अर्थ करने से मूल भाव स्पष्ट होता है, वही करना चाहिए. मात्र शब्द-म्लेच्छ बनकर शब्द के पीछे नहीं पड़ना चाहिए। लौकिक जीवन में भी हम शब्द के सीधे अर्थ को छोड़कर प्रकरणानुसार अर्थ करके अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। जैसे - घी का घड़ा आदि। शुद्ध आत्मतत्त्व को न जाननेवाले के सर्व तप व्यर्थ :
बाह्यमाभ्यन्तरं द्वेधा प्रत्येकं कुर्वता तपः।
नैनो निर्जीर्यते शुद्धमात्मतत्त्वमजानता ।।२६२।। अन्वय :- शुद्धं आत्मतत्त्वं अजानता बाह्य आभ्यन्तरं द्वेधा प्रत्येकं तपः कुर्वता (अपि) एन: न निर्जीर्यते।
सरलार्थ :- जो जीव निज शुद्ध आत्मतत्त्व को न जानते हुए जिनेन्द्र कथित अनशनादि छहों बाह्य तप और प्रायश्चित्तादि छहों अंतरंग तप - इनमें से प्रत्येक तप का आचरण करता है, तो भी उस जीव के किसी भी कर्म की निर्जरा नहीं होती।
भावार्थ :- मोक्षशास्त्र में तपसा निर्जरा च' इस सूत्र के द्वारा यह प्रतिपादन किया गया है कि तप से निर्जरा तथा संवर दोनों होते हैं । यहाँ एक खास मौलिक बात और कही गयी है और वह यह कि जबतक योगी/तपस्वी शुद्ध आत्मतत्त्व को नहीं जानते/पहचानते, तबतक उसके बाह्य तथा आभ्यन्तर दोनों प्रकार के तपों में से किसी भी प्रकार का तप करते हए कर्मों की निर्जरा नहीं होती।
संवर अधिकार में जिस प्रकार संवराधिकारी के लिये आत्मतत्त्व को जानने और उसमें स्थित होने की बात कही गयी है; उसीप्रकार निर्जराधिकारी के लिये भी उसे समझना चाहिए।
[C:/PM65/smarakpm65/annaji/yogsar prabhat.p65/1751