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संवर अधिकार
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बनती है। इससे स्पष्ट जाना जाता है कि जो भाव से त्याग है, वही कल्याणकारी है। लोकदिखावे के रूप में जो भी त्यागवृत्ति है, वह कल्याणकारिणी नहीं है, इस कारण ही जीव को द्रव्यलिंगी मुनि अवस्था का स्वीकार करने पर भी मुक्ति की प्राप्ति नहीं हो पाई। भाव से निवृत्त होने की प्रेरणा -
विज्ञायेति निराकृत्य निवृत्तिं द्रव्यतस्त्रिधा।
भाव्यं भाव-निवृत्तेन समस्तैनो निषिद्धये ।।२४८।। अन्वय :- इति निवृत्तिं विज्ञाय द्रव्यत: त्रिधा निराकृत्य समस्त-एन: निषिद्धये (त्रिधा) भाव-निवृत्तेन भाव्यम्।
सरलार्थ :- इसप्रकार द्रव्य-भावरूप दोनों निवृत्ति को अर्थात् त्याग को यथार्थ जानकर और द्रव्य निवृत्ति को मन-वचन-काय से छोड़कर अर्थात् उपादेय न मानकर/हेय मानकर ज्ञानावरणादि समस्त कर्मों को दूर करने के लिये त्रियोगपूर्वक भाव से निवृत्त होना चाहिए।
भावार्थ :- पिछले श्लोकानुसार जब द्रव्य मात्र की निवृत्ति से कर्मों की निवृत्ति न होकर भाव से निवृत्ति होने पर कर्मों की निवृत्ति होती है, तब फलितार्थ यह निकला कि द्रव्य निवृत्ति का आग्रह न रखकर - उसे हेय मानकर अर्थात् द्रव्यनिवृत्ति का ज्ञाता-दृष्टा होकर - भाव से निवृत्तिरूप होना चाहिए, ऐसा होने से समस्त कर्मों की निवृत्ति होती है; यही निष्कर्ष इस श्लोक में सूचित किया गया है। __ श्लोक में द्रव्य निवृत्ति को ऐसा जो शब्द प्रयोग में आया है, उसका यथार्थ भाव समझना चाहिए। द्रव्य-त्याग का भी अपना स्थान है, वह धर्म को उत्पन्न नहीं करता, यह सत्य होने पर भी उस बुद्धिपूर्वक द्रव्यनिवृत्ति के बिना भाव निवृत्ति हो नहीं सकती, यह भी वस्तुस्वरूप है। इस कारण ही अप्रमत्त गणस्थान की प्राप्ति के पहले पात्र श्रावक को मुनिराज के २८ मूलगुणरूप द्रव्यलिंग का स्वीकार अनिवार्य है। इस विषय को स्पष्ट करने के लिये ही आचार्य कुंदकुंद ने नग्गो ही मोक्खमग्गो नग्नता ही मोक्षमार्ग हैं' ऐसा वचन व्यवहार से कहा है।
द्रव्यलिंग का भावलिंग के साथ निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है। कोई भी मुनिपद का अंगीकार करता है तो उसे द्रव्यलिंगपूर्वक ही भावलिंग की प्राप्ति होती है। प्रथम, चतुर्थ अथवा पंचम गुणस्थान में जो भव्य महापुरुष द्रव्यलिंग का स्वीकार करते हैं, उन्हें ही निजशद्धात्मा के विशिष्ट ध्यान से सीधा अप्रमत्तविरत गुणस्थानरूप भावलिंगपना प्राप्त होता है। शरीरात्मक लिंग से मक्ति नहीं -
शरीरमात्मनो भिन्नं लिङ्गं येन तदात्मकम् । न मुक्तिकारणं लिङ्गं जायते तेन तत्त्वतः ।।२४९।। यन्मुक्तिं गच्छता त्याज्यं न मुक्तिर्जायते ततः।
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